________________
जैन धर्म : प्रागैतिहासिक काल / २७
आपको बता रहा हूं। ऐसा कहने वाला स्वयं बुद्ध या अनुभव की उद्घोषणा करने वाला नहीं होता । प्रत्येक तीर्थंकर कहेगा, 'मैंने ऐसा देखा है, अनुभव किया है, यह मैं कह रहा हूं।' यह अहंकार की भाषा लगती है । या तो अहंकारी व्यक्ति ऐसा कहेगा कि मैं ऐसा कहता हूं या साक्षात्द्रष्टा कहेगा कि मैं ऐसा कहता हूं । तीर्थंकर साक्षात्द्रष्टा होता है। वह सत्य का साक्षात्कार करता है इसलिए तीर्थंकर इस भाषा में बोलते हैं कि मैंने ऐसा अनुभव किया है और मैं यह कहता हूं । इसीलिए वे तीर्थंकर हैं, प्रवर्तक हैं । प्रत्येक तीर्थंकर धर्मचक्र का प्रवर्तक होता है। भगवान ऋषभ ने धर्म चक्र का प्रवर्तन किया। भगवान महावीर ने धर्म चक्र का प्रवर्तन किया और उनके मध्यवर्ती तीर्थंकरों ने धर्म चक्रों का प्रवर्तन किया ।
जैन परम्परा में ऐसे चौबीस महापुरुष हुए, जिन्होंने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया । इसलिए जैन धर्म के चौबीस प्रवर्तक हैं । वे भिन्न-भिन्न काल में हुए हैं । उनके मध्य काल का अंतराल है । सबने अपने-अपने स्वयंबुद्ध अनुभव के आधार पर प्रवर्तन किया। पर उन सबमें एक समान आधार, समान अनुभूति है, इसलिए एक परम्परा के साथ चौबीस तीर्थंकर जुड़े हैं और जैन धर्म के सब प्रवर्तक माने जाते हैं ।
जैन धर्म का एक प्रसिद्ध सूत्र है
----
-
जे य बुद्धा अइक्कंता, जे य बुद्धा अणागया । संती तेसिं पइट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा ॥
अतीत काल में जितने तीर्थंकर हुए हैं या भविष्य में भी जितने तीर्थंकर होंगे उन सबका आधार है शान्ति । जैसे सब जीवों का आधार है पृथ्वी, वैसे सभी तीर्थंकरों का आधार है शान्ति ।
आज की सबसे बड़ी समस्या है - अशान्ति । आज के संसार को जितनी शान्ति की जरूरत है, उतनी शायद पहले कभी नहीं रही होगी । इसलिए नहीं रही कि दुनिया इतनी छोटी कभी नहीं बनी। इतने द्रुतगामी वाहन कभी नहीं बने और इस प्रकार के प्रक्षेपास्त्र तथा संहारक अस्त्रों का निर्माण सामूहिक रूप में शायद कभी नहीं हुआ । इसलिए आज के संसार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org