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________________ २६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र व्यवस्थापक, राज्य के पहले व्यवस्थापक ऋषभ बने, सूत्रधार बने और फिर सारी व्यवस्थाओं का निर्माण कर, प्रजा के लिए सारी व्यवस्थाएं कर वे स्वयं मुनि बन गये। यानी धर्म की व्यवस्था का सूत्रपात किया। वे प्रथम मुनि बने। उन्होंने आत्म-साधना प्रारम्भ की। उससे पहले कोई व्यवस्थित धर्म नहीं था। प्राकृतिक धर्म था किन्तु प्रवर्तित धर्म नहीं था। भगवान ऋषभ ने पहले स्वयं साधना की। साधना के द्वारा आत्मा का अनुभव किया, अनुभव ज्ञान प्राप्त किया और उसके पश्चात जैन धर्म का प्रवर्तन किया, त्याग-धर्म का, मोक्ष-धर्म का प्रवर्तन किया। उनका धर्म अनुभूत धर्म है। धर्म का प्रवर्तन दो प्रकार से होता है। एक बुद्धि के सहारे धर्म का प्रवर्तन होता है और एक अनुभव के आधार पर धर्म का प्रवर्तन होता है। जो अनुभव के आधार पर धर्म का प्रवर्तन किया जाता है, वह वास्तव में धर्म होता है। बुद्धि के आधार पर जो धर्म का प्रवर्तन होता है, वह तार्किक धर्म होता है, वास्तविक धर्म नहीं होता। भगवान ऋषभ ने कैवल्य प्राप्त किया, सर्वज्ञ बने, सर्वदर्शी बने, आत्मदर्शी बने । आत्मदर्शन के पश्चात धर्म के सूत्र जनता के सामने प्रस्तुत किए। जैन धर्म के पहले प्रवर्तक ऋषभ बने। चौबीसवें प्रवर्तक भगवान महावीर बने। इन दोनों के बीच में बाईस प्रवर्तक और बने। इस प्रकार चौबीस प्रवर्तक बने । आचार्य हजारों-हजारों हुए। उपदेष्टा हजारों-हजारों हुए। किन्तु प्रवर्तक केवल चौबीस हुए। हमें तीर्थंकर और आचार्य-इस भेद को समझना होगा। तीर्थंकर परम्परा का प्रवर्तक होता है। आचार्य परम्परा का संचालक होता है। आचार्य तीर्थंकर का प्रतिनिधि होता है। तीर्थंकर परम्परा का संचालक नहीं होता, किन्तु स्वयंबुद्ध और प्रवर्तक होता है। आचार्य तीर्थंकर की परम्परा के आधार पर सत्यों का प्रतिपादन करता है। तीर्थंकर किसी परम्परा का प्रतिपादक नहीं होता। वह स्वयं बुद्ध अपने अनुभव के आधार पर धर्म का निरूपण करता है। इसलिए प्रत्येक तीर्थंकर को आदिकर, धर्म की आदि करने वाला या प्रवर्तक कहा जाता है। भगवान महावीर ने यह नहीं कहा कि पार्श्व ने जो कहा, वह मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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