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२२ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
* काल। * पुद्गल।
* जीव। ६. मनुष्य अपने ही कर्त्तव्य से उत्क्रान्ति और अपक्रान्ति करता है।
इस प्रसंग में महावीर ने जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष-इन तत्त्वों की व्याख्या की। ७. मनुष्य भाग्य या कर्म के यंत्र का पुर्जा नहीं है । भाग्य मनुष्य को नहीं बनाता, मनुष्य भाग्य को बनाता है। वह अपने पुरुषार्थ से भाग्य को बदल सकता है।
५. धर्म-संघ धर्म-संघ की सुव्यवस्था के लिए महावीर ने संघ के सूत्रों का
प्रतिपादन किया१. असंविभागी को मोक्ष नहीं मिलता, इसलिए संविभाग करो।
दूसरों के हिस्से पर अधिकार मत करो। २. अनाश्रितों को आश्रय देने के लिए तत्पर रहो। ३. नये सदस्यों को शिक्षा देने के लिए तत्पर रहो। ४. रोगी की सेवा के लिए तत्पर रहो। ५. पारस्परिक कलह हो जाने पर किसी का पक्ष लिये बिना उसे शांत
करने का प्रयत्न करो। सामाजिक संगठनों के लिए भी इन सूत्रों की उपयोगिता कम नहीं है।
६. धर्म का स्वरूप १. धर्म सर्वाधिक कल्याणकारी है। किन्तु वही धर्म, जिसका स्वरूप
अहिंसा, संयम और तप है। २. विषय-वासना, धन और सत्ता से जुड़ा हुआ धर्म संहारक विष
की भान्ति खतरनाक होता है।
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