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________________ १८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र नैतिकता, धर्म और दर्शन बीज की निष्पत्ति पेड़ और पेड़ की निष्पत्ति फल है। दर्शन की निष्पत्ति नैतिकतापूर्ण व्यवहार है। जब हम भीतर से देखते हैं, तब दर्शन से धर्म की और धर्म से नैतिकता की भूमिका पर आते हैं। जब हम बाहर से देखते हैं तब नैतिकता से धर्म की और धर्म से दर्शन की भूमिका पर चले जाते हैं। महावीर का दर्शन भीतर से बाहर की ओर था। उसी आधार पर उन्होंने कहा-जिसका दृष्टिकोण सम्यक् है वही व्रती होगा। अहिंसा का व्रती अपने आश्रितों और कर्मकारों के प्रति क्रूर व्यवहार नहीं करेगा, उनकी आजीविका में विघ्न नहीं डालेगा। सत्य का व्रती विश्वासघात नहीं करेगा, झूठी गवाही नहीं देगा। अचौर्य का व्रती मिलावट नहीं करेगा, असली वस्तु दिखाकर नकली वस्तु नहीं देगा। ब्रह्मचर्य का व्रती विलासपूर्ण सामग्री का उपयोग नहीं करेगा। अपरिग्रह का व्रती संग्रह की सीमा करेगा। व्यक्तिगत जीवन में संयमी रहेगा। जिसके जीवन में नैतिकता नहीं है, उसमें धर्म नहीं हो सकता। नैतिकता-विहीन धर्म की कल्पना महावीर के लिए सर्वथा असम्भव थी। धर्म के आचरण से व्यक्ति के जीवन व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आता, सामाजिक सम्बन्धों पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता तो कैसे समझा जाए कि धर्म का आचरण करने वाले जीवन में धर्म है? धर्म शुद्ध आत्मा में उतरता है। आत्मा की शुद्धता होती है, वहां अनैतिकतापूर्ण व्यवहार सम्भव नहीं हो सकता। मौलिक सिद्धांत महावीर ने तत्त्व, धर्म और व्यवहार के जिन सिद्धातों का प्रतिपादन किया और जिन सिद्धांतों ने जनमानस को आंदोलित किया, वे आज भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने ढाई हजार वर्ष पूर्व थे। संक्षेप में उन सिद्धांतों और उनसे फलित शिक्षाओं का आकलन इस प्रकार किया जा सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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