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भगवान महावीर : जीवन और सिद्धान्त / १७
यह सरल नहीं है। स्वभाव, रुचि और चिंतन की धारा भिन्न होने पर मैत्री टूट जाती है। महावीर ने उसे साधने का सूत्र दिया-सहिष्णुता। उन्होंने बताया-भेद के पीछे छिपे हुए अभेद को मत भूलो। तुम जिससे भिन्न हो उससे उतने ही अभिन्न हो। जब सबसे भिन्न-अभिन्न हो, तब भेद को सामने रखकर कैसे किसी को शत्रु मानते हो और अभेद को सामने रखकर कैसे किसी को मित्र मानते हो? तुम जिसे शत्रु मानते हो उसे भी सहन करो और जिसे मित्र मानते हो उसे भी सहन करो। इस सूत्र से अपने आपको भावित करो
मैं सब जीवों को सहन करता हूं। वे सब मुझे सहन करें। मेरी सबके प्रति मैत्री है, किसी के प्रति मेरा वैर नहीं है।
तुम सबसे भिन्नाभिन्न हो तब कैसे किसी को नीच मानते हो और कैसे किसी को उच्च मानते हो? तुम जिसे नीच मानते हो, वह भी तुम्हारे मन का अंहकार है और जिसे तुम उच्च मानते हो वह भी तुम्हारे मन का अहंकार है। अहंकार को छोड़ यथार्थ को देखो। मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र होता है। यह कर्म का विभाजन है। इस विभाजन के साथ अंहकार को छोड़कर उच्चता और नीचता की रेखाएं निर्मित मत करो, मनुष्य को तोड़ कर मत देखो। व्यक्तित्व और कर्तृत्व के साथ जुड़ी हुई मानवीय एकता को मत भूलो। इस घोष ने भारतीय मानस को आंदोलित कर दिया। अनकेता एकता से पृथक् नहीं है और एकता अनेकता से पृथक् नहीं है। यह सहअस्तित्व का मौलिक आधार है। इसी आधार पर मानवीय एकता संभव हो सकती है। इसी आधार पर भिन्न-भिन्न शासन-प्रणालियां एक साथ चल सकती हैं। अनेकता स्वाभाविक है। उसे मिटाया नहीं जा सकता। शांतिपूर्ण जीवन के लिए सहअस्तित्व अनिवार्य है। उसे छोड़ा नहीं जा सकता।
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