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________________ १५६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र जैन धर्म का बड़ा प्रभाव है। बौद्ध धर्म का भी प्रभाव है। भगवान महावीर ने कहा कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होई खत्तियो। कम्मणा वइसो होइ, सुहो हवई कम्मुणा। जो प्रचलित वर्ण-व्यवस्था थी, उसमें चार वर्ण माने गए थे। उन चारों वर्गों को सामने रखकर महावीर ने कहा-ब्राह्मण भी कर्म से होता है, क्षत्रिय भी कर्म से होता है, वैश्य और शुद्र भी कर्म से होता है। कर्मणा जाति है, जन्मना जाति नहीं है। एक व्यक्ति आज रक्षा का काम करता है तो क्षत्रिय बन जाता है, कल वह व्यापार करेगा तो वैश्य बन जाएगा। सेवा के काम में आएगा तो शूद्र बन जाएगा। अध्ययन और अध्यापन के काम में लगेगा तो वह अध्यापक बन जाएगा। एक ही व्यक्ति अपने जीवन में चारों जातियों को भोग सकता है। यानी चारों जातियों में जा सकता है। जातिवाद अतात्त्विक है । जन्मना जाति नहीं होती। जाति कर्म से होती है। जाति के आधार पर कोई ऊंचा नीचा नहीं होता। भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त के आधार पर अपने साधुओं को निर्देश दिया कि भिक्षु दीक्षित हुआ, वह चाहे चक्रवर्ती राजा था, चाहे और कोई बड़ा आदमी था, उस चक्रवर्ती का नौकर या उसका दास पहले दीक्षित हो चुका है, आज दीक्षित होने वाला सम्राट उनके पास जाकर वंदना करे, प्राणिपात करे। यह अहंकार न करे कि यह तो मेरा नौकर था और मैं इसका मालिक था। समता धर्म में जो प्रतिपन्न हो गया, समता धर्म जिसने स्वीकार कर लिया उसके लिए अंहकार वर्जनीय है, अकरणीय है और समता धर्म की आचार-संहिता के सर्वथा विरुद्ध है। भगवान महावीर ने चाण्डाल को दीक्षित किया। जैन धर्म में सब जाति के लोग दीक्षित हुए-क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शुद्र भी। चाण्डाल भी दीक्षित हुए। दीक्षित होने के बाद सबके साथ पूर्ण समता, कोई भेदभाव नहीं, एकात्मकता, कहीं कोई अन्तर नहीं। बल्कि यह कहा चाण्डाल जाति के हरिकेश मुनि के प्रसंग में सक्खं खुदीसइ तवोविसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई। सो वागपुत्ते हरिएससाहू, जस्सेरिसा इड्डि महाणुभागा॥ साक्षात देखो। यह तपस्या की विशेषता है, आचार की विशेषता है, चरित्र की विशेषता है, गुण की विशेषता है, जाति की कोई विशेषता नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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