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________________ जैन धर्म की देन / १५५ स्वभाव से अच्छा आचरण करते-करते उस बिन्दु पर पहुंच जाता है, केवली बन जाता है। इस बात को जैन धर्म ने स्वीकार किया है, इसका प्रतिपादन किया है। 'असोच्चा केवली' को भी वही स्थान दिया जो जैन परम्परा में दीक्षित मुनि को केवली बनने पर मिलता है । कोई अन्तर नहीं दोनों में । कितना बड़ा स्वीकार है सार्वभौम धर्म का । इसका स्पष्ट अर्थ है कि आकाश एक है, उसे घेरों में बांधा नहीं जा सकता । धर्म एक है। सत्य एक है । उसे सम्प्रदायों में बांधा नहीं जा सकता। यह सम्प्रदायातीत धर्म का प्रतिपादन जैन धर्म की अपनी एक मौलिक विशेषता है । 1 तीसरी विशेषता है - आध्यात्मिक साम्यवाद। जैन धर्म ने समता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। भगवान महावीर के धर्म का नाम समता धर्म, सामायिक धर्म, समय धर्म है। जैन शासन का कभी नाम सामायिक धर्म रहा है, ऐसा प्रमाणित होता है । तीन प्रकार के निर्णय बताए गए - वैदिक, लौकिक और सामायिक । एक हैं वेदों के आधार पर होने वाला निर्णय यानी वैदिक सिद्धान्त । दूसरा है लौकिक सिद्धान्त जो लोकमान्यता के आधार पर चलता है और तीसरा है सामायिक सिद्धान्त । यानी श्रमणों का सिद्धान्त या जैन धर्म का सिद्धान्त । समया धम्म मुदाहरे मुणी- मुनी ने यानी महावीर ने समता धर्म का प्रतिपादन किया, आध्यात्मिक साम्यवाद का प्रतिपादन किया। सब जीव समान हैं। पृथ्वीकायिक जीव, जो अविकसित हैं, से लेकर मनुष्य का जीव, जो सबसे अधिक विकसित है- ये सब जीव जीवत्व की दृष्टि से समान हैं। केवल सिद्धान्त के आधार पर ही यह बात नहीं कही गई। उन्होंने व्यवहार के आधार पर भी समता का प्रतिपादन किया। जैन धर्म ने जातिवाद को अतात्त्विक माना, जन्मना जाति को अस्वीकार किया। भगवान महावीर के समय में ब्राह्मण परम्परा में जातिवाद को तात्त्विक मान्यता मिली थी कि जाति जन्मना होती है । जन्मना जातिवाद प्रचलित था । जाति के आधार पर आदमी ऊंचा और नीचा माना जाता था । जाति के आधार पर आदमी छूत और अछूत माना जाता था । वर्ण-व्यवस्था चल रही थी। किन्तु आज का स्वर और युग का चिन्तन यह है कि जातिवाद ने समाज को बहुत हानि पहुंचाई है । आज का युग - चिन्तन जातिवाद के पक्ष में नहीं है । इस पर किसका प्रभाव है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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