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________________ जैन धर्म की देन / १५७ है। देखो चाण्डाल-पुत्र हरिकेश साधु को सारे ब्राह्मण कुमार और ऋषि वंदना कर रहे हैं। इसका इतना प्रभाव और महत्त्व है। महावीर ने अस्पृश्यता और छुआछूत को सर्वथा अस्वीकार किया। आदमी कोई अस्पृश्य होता नहीं। घृणित होता नहीं। घृणा पर इतना तीखा प्रहार किया कि घृणा करने वाला मोहनीय कर्म का बंध करता है और मूढ़ता को प्राप्त होता है। बहुत शताब्दियों तक या सहस्राब्दियों तक यह चलता रहा-पुरुष बड़ा और स्त्री छोटी। पुरुष जैसा चाहे वैसा स्त्री के साथ में व्यवहार कर सकता है। हजारों वर्षों की अवधि में पुरुषों ने स्त्रियों पर इतने क्रूर और निर्मम अत्याचार किए हैं कि उनको पढ़कर या जानकर आदमी कांप उठता है। शायद भारतीय इतिहास में भगवान महावीर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने पुरुष और स्त्री को समान स्थान दिया। उन्होंने अपने धर्मसंघ में स्त्री को दीक्षित किया। जैन धर्म के पहले या महावीर से पहले कहीं नहीं मिलेगा कि स्त्री को दीक्षित किया हो। पहला इतिहास है कि भगवान महावीर ने स्त्री को दीक्षा दी और उनका व्यवस्थित संगठन खड़ा किया। महात्मा बुद्ध ने भी स्त्रियों को दीक्षित किया, भिक्षुणियां बनाईं, किन्तु बहुत बाद में और बड़ी हिचकिचाहट के साथ। जब गौतमी का प्रसंग आया तब आनन्द ने कहा-भंते ! गौतमी को दीक्षित करें। बुद्ध ने कहा-ठीक नहीं होगा, अच्छा नहीं होगा, अस्वीकार कर दिया। बहुत अनुरोध करने पर बुद्ध ने स्वीकार किया, पर कहा-आनन्द ! मेरे धर्म का पांच सौ वर्ष का आयुष्य क्षीण हो जाएगा, यानी बौद्ध धर्म लड़खड़ा जाएगा और सचमुच लड़खड़ा गया। भिक्षुणियां बनाईं और सचमुच धर्मसंघ लड़खड़ा गया। भगवान महावीर ने समता की स्थापना की और साथ-साथ में व्यवस्था भी रखी। उनका धर्मसंघ कभी नहीं लड़खड़ाया। ढाई हजार वर्ष के इतिहास में हजारों-हजारों भिक्षुणियां बनीं, किन्तु संघ लड़खड़ाया नहीं। विषमता अलग बात है, व्यवस्था अलग बात है। समता और व्यवस्था में कोई विरोध नहीं है। अगर समता और व्यवस्था में विरोध माना जाए तब तो एक ही टिकेगी। समता टिकेगी या व्यवस्था। दोनों नहीं टिक सकते। व्यवस्था नहीं होगी तो समता भी विषमता में बदल जाएगी। भगवान महावीर ने स्त्री जाति को पुरुष के बराबर स्थान दिया। आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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