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१५० / जैन दर्शन के मूल सूत्र
ब्रह्मचर्य का पालन करना, परिग्रह नहीं रखना - यह धर्म का नैतिक स्वरूप है। राग-द्वेषमुक्त चेतना आत्मिक स्वरूप है। वह किसी दूसरे के प्रति नहीं है और उसका सम्बन्ध किसी दूसरे से नहीं है। जीव की हिंसा नहीं करना - यह दूसरों के प्रति आचरण है । इसलिए यह नैतिक है। नैतिक नियम धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप से ही फलित होता है। इसका उदय धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप ही है । इसलिए यह धर्म से भिन्न नहीं हो सकता । हर्बर्ट स्पेन्सर और थॉमस हक्सले तथा आधुनिक प्रकृतिवादी और मानवतावादी चिंतकों ने धर्म और नैतिकता को पृथक् स्थापित किया है। यह संगत नहीं है। जो आचरण धर्म की दृष्टि से सही है, वह नैतिकता की दृष्टि से गलत नहीं हो सकता। धर्म अपने में और नैतिकता दूसरों के प्रति- इन दोनों में यही अन्तर है। किन्तु इनमें इतनी दूरी नहीं है, जिससे एक ही आचरण को धर्म का समर्थन और नैतिकता का विरोध प्राप्त हो । समाजशास्त्रियों ने धर्म और नैतिकता के भेद का निष्कर्ष स्मृति-धर्म के आधार पर निकाला। उस धर्म को सामने रखकर धर्म और नैतिकता में दूरी प्रदर्शित की जा सकती है। धर्म के द्वारा समर्थित आचरण को नैतिकता का विरोध प्राप्त हो सकता है। वह धर्म रूढ़िवाद का समर्थक होकर समाज की गतिशीलता का अवरोध बन सकता है।
धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप आत्म- केन्द्रित और उसका नैतिक स्वरूप समाज-व्यापी है। इस प्रकार धर्म दो आयामों में फैला हुआ है } इस धर्म में दोनों रूप शाश्वत सत्य पर आधारित होने के कारण अपरिवर्तनीय हैं । स्मृति-धर्म (समाज की आचार संहिता) देशकाल की उपयोगिता पर आधारित है। इसलिए यह परिवर्तनशील है। इस परिवर्तनशील धर्म की अपरिवर्तनशील धर्म के रूप में स्थापना और स्वीकृति होने के कारण ही धर्म के नाम पर समाज में वे बुराइयां उत्पन्न हुईं जिनकी चर्चा समाजशास्त्रियों ने की है।
समाज व्यवस्था का मूल मंत्र है- अहिंसा । अहिंसा का अर्थ हैअभय का विकास और अनाक्रमण का विकास।
यह जंगल का कानून है कि एक शेर दूसरे प्राणियों को खा जाता
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