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________________ जैन दर्शन में राष्ट्रीय एकता के तत्त्व / १४७ अहिसा का पहला पड़ाव ___ हम सब सापेक्ष हैं । इस सचाई को हृदयंगम कर लेने पर ही समन्वय की बात आगे बढ़ती है। सापेक्षता की अनुभूति होती है तब समन्वय के द्वारा परस्पर सम्बन्ध स्थापित होता है। सापेक्षता और समन्वय की दिशा में प्रस्थान अहिंसा का पहला पड़ाव बनता है । हिंसा के द्वारा मांग पूरी हो जाती है, सफलता जल्दी मिल जाती है-यह विश्वास मानव मस्तिष्क में रूढ़ हो गया। क्वचित् सफलता का आभास मिल जाता है, इसलिए उसकी पुष्टि हो जाती है। व्यापक संदर्भ में इसे देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य जाति का सबसे अधिक अनिष्ट हिंसा ने किया है। . भगवान महावीर, भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी ने इस सचाई की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया था, फिर भी हिंसा का पक्ष बहुत प्रबल है, उसे भारी समर्थन मिलता है। राष्ट्रीय विघटन हिंसा का ही एक स्फुलिंग है। हिंसा की समस्या ___मानव जाति एक है-यह सैद्धान्तिक बात है। व्यावहारिक बात इससे भिन्न है। कर्म, संस्कार, विचार, रुचि और आचार की दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य भिन्न है । वह भिन्नता ही संघर्ष, हिंसा और तनाव का कारण बनती है। जिनमें आवेश की प्रबलता है, वे हिंसा में विश्वास करते हैं। बौद्धिक लोगों ने उसे कम बढावा नहीं दिया है। अहिंसा की समस्या है कि सब मनुष्य समान नहीं हैं। हिंसा को इसका लाभ मिल रहा है। अचेतन को एकरूप किया जा सकता है। चेतन को बलात् या आकस्मिक रूप से एक रूप नहीं किया जा सकता। उसकी एकरूपता का एक उपाय है और वह है प्रशिक्षणात्मक अभ्यास । प्रशिक्षण और अभ्यास के द्वारा यौगलिक समाज की कल्पना की जा सकती है। यौगलिक शब्द उस समाज का प्रतिनिधित्व करता है; जिसमें क्रोध, मान, माया और लोभ का आवेश अल्पतम होता है । फलत: वह अहिंसक या अपरिग्रही समाज होता है। उक्त कषाय चतुष्टय की तीव्रता ने समाज में हिंसा और परिग्रह की समस्या को जटिल बनाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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