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१४६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
जब वह अपने विचार को सापेक्ष माने। दूसरों के विचार के साथ उसका समन्वय स्थापित कर सके।
___ पानी जीवन है, उसके बिना जीवन चल नहीं सकता। यह विचार सही है किन्तु आहार के प्रसंग में सही है। जब श्वास और पानी की तुलना करें तो कहना होगा कि श्वास जीवन है। पानी जीवन को चलाने का एक साधन है। एक तत्त्व दूसरे तत्त्व से गुंथा हुआ है । एक विचार दूसरे विचार से जुड़ा हुआ है। इस ग्रन्थन और जोड़ की सापेक्षता को समझकर ही एकात्मकता का विकास किया जा सकता है। गति में दोनों पैर सापेक्ष हैं। एक आगे बढ़ता है, दूसरा पीछे सरक जाता है। पीछे वाला आगे आता है और आगे वाला पीछे चला जाता है । इस गौण और मुख्यभाव से समाज की व्यवस्था और राष्ट्र की एकात्मकता चल सकती है।
बाधक है आग्रह - आग्रह गति और विकास-दोनों में बाधक है। आज समाज में जातीयता, भाषा, प्रान्तीयता के आग्रह पनप रहे हैं। वे सब विघटनकारी तत्त्व हैं। किसी भी भाषा का मूल्य हो सकता है किन्तु उसका उतना मूल्य नहीं हो सकता कि वह भावात्मक एकता को विखंडित कर दे। जाति की अपनी उपयोगिता हो सकती है, किन्तु मानवता में दरार पैदा करे उतना मूल्य उसे नहीं दिया जा सकता।
सापेक्षता के प्रतीक ___जैन दर्शन का ध्रुव सिद्धान्त है कि मूलत: मानव जाति एक है। वह उपयोगिता या व्यावहारिकता की दृष्टि से अनेक भागों में विभक्त है। उपयोगिता मौलिकता का अतिक्रमण करे-यह असंगत बात है। राष्ट्रों की इकाइयां भी उपयोगिता के आधार पर बनी हैं किन्तु वे शन्तिपूर्ण जीवन तभी जी सकते हैं जब सापेक्षता के सूत्र में बंधे हुए हों। सापेक्षता इतनी जुड़ी हुई है कि कोई राष्ट्र अलग होकर अकेला नहीं जी सकता। एक राजधानी में सैकड़ों राष्ट्रों के दूतावास सापेक्षता के प्रतीक हैं।
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