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________________ हम हैं अपने सुख-दुःख के कर्ता / १३५ का भार भी स्वयं को वहन करना होगा। इस स्थिति में एक नयी चेतना का विकास होता है। अपना कर्तृत्व और अपना दायित्व तो फिर दोषारोपण की वृत्ति समाप्त हो जाती है। निमित्त हो सकता है। दो बातें हैं । एक निमित्त और एक साक्षात कर्तृत्व। निमित्त दुनिया में बहुत सारे हैं। प्रतिकूल परिस्थिति आयी, व्यक्ति को दुःख हो गया। अनुकूल परिस्थिति आयी, व्यक्ति को सुख हो गया। वह निमित्त बना किन्तु सुख-दु:ख का संवेदन वह परिस्थिति नहीं करती। सुख-दुःख का संवेदन व्यक्ति स्वयं करता है। सुख-दुःख का अर्जन व्यक्ति स्वयं करता है। शरीरशास्त्रीय दृष्टि से मनुष्य के मन में दो परते हैं-एक सुख के संवेदन की और एक दु:ख के संवेदन की। एक नियंत्रण की और एक खुलावट की। व्यक्ति के मन में आता है, यह काम कर लूं। परिस्थिति आयी क्रोध करने की। मन में आया क्रोध कर लूं। किन्तु हमारे मस्तिष्क में ऐसी व्यवस्था है, ऐसी प्रणाली है, वह कहेगा कि अभी नहीं। अभी क्रोध क्यों करते हो? अभी देखो। अभी क्रोध मत करो। जरा प्रतीक्षा करो। दोनों प्रणालियां साथ-साथ काम कर रही हैं। यदि यह नियंत्रण की प्रणाली न हो, तो आदमी आपा खो बैठे। यह प्रणाली बार-बार रोकती है। कर्मशास्त्र में भी ये दो बातें हैं। दो विरोधी बातें साथ में चलती हैं। एक आवरण, दूसरा अनावरण । यानी हमारे ज्ञान का आवरण भी है और अनावरण भी है। आवरण है, उससे हम पूरी बात को नहीं जानते। किन्तु अनावरण है, इसलिए जानते भी हैं। देखते भी हैं और नहीं भी देखते हैं। क्योंकि दर्शन का आवरण भी है और दर्शन का अनावरण भी है । हम सुख भी भोगते हैं और दु:ख भी भोगते हैं। क्योंकि सात वेदनीय कर्म का उदय भी है और असात वेदनीय कर्म का उदय भी है। दोनों एक साथ नहीं होते। दोनों विरोधी शक्तियां एक साथ नहीं आतीं। जब एक उदय में आती है तो दूसरी शान्त हो जाती है। दूसरी उदय में आती है, तो पहली शान्त हो जाती है। हमारी चेतना में मूर्छा भी है और जागरूकता भी है। यानी मोह का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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