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________________ १३६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र उदय भी है और मोह का उपशमन भी है। दोनों बातें हैं। मोह उपशान्त है, इसलिए हम अच्छा आचरण करते हैं। मोह का उदय है, इसलिए मिथ्या आचरण भी करते हैं। दोनों विरोधी बातें साथ में चलती हैं। अच्छा नामकर्म है, हम अच्छे-अच्छे पुद्गलों का अनुभव करते हैं। बुरा भी है, बुरे का भी अनुभव करते हैं। सम्मान भी पाते हैं और असम्मान भी पाते हैं। हमारे शरीर में भी दो सूक्ष्म विरोधी परते हैं। हमारे मस्तिष्क में भी दो विरोधी परतें काम कर रही हैं। दोहरा व्यक्तित्व है। वैसे दोहरा व्यक्तित्व बहुत खतरनाक होता है। पर यह दोहरा व्यक्तित्व हमारी प्रकृति है, निसर्ग है। हमारे शरीर में भी हमारा दोहरा व्यक्तित्व है और हमारे स्थूल मस्तिष्क में भी दो व्यक्तित्व हैं। कभी एक प्रकट होता है और कभी दूसरा प्रकट होता है। कभी हमें लगता है कि आदमी बहुत अच्छा है और कभी लगता है कि आदमी बहुत बुरा है। एक आदमी डाकू भी रहा और कभी संत बन गया। कभी संत, कभी डाकू। कभी डाकू और कभी संत। यह कोई नयी बात नहीं, नयी घटना नहीं। जो डाकू है, उसके पीछे संत भी बैठा है और जो संत है, उसके पीछे डाकू भी बैठा है । ये दोनों बातें हमारे साथ-साथ हो रही हैं। यह एक निसर्ग है। इसीलिए आत्मा सुख और दुःख दोनों की कर्ता है। हम स्वयं सुख और दुःख दोनों के कर्ता हैं। दूसरा कोई सुख-दुःख देने वाला नहीं है। । हमारे पास प्रवृत्ति के तीन साधन हैं-मन, वचन और शरीर। सारी प्रवृत्तियां इन तीनों के माध्यम से होती हैं। अच्छा मन, अच्छी प्रवृत्ति । अच्छा वचन, अच्छी प्रवृत्ति। अच्छा शरीर का प्रवर्तन, अच्छी प्रवृत्ति । मन की बुरी प्रवृत्ति, वचन की बुरी प्रवृत्ति और शरीर की बुरी प्रवृत्ति। जैसी प्रवृत्ति होती है, वैसा हमारा अनुबंध हो जाता है, संस्कार का निर्माण होता है। ऐसे पुद्गलों का आकर्षण होता है और वे पुदगल अनुबंध स्थापित कर लेते हैं। हमारे साथ रह जाते हैं, जुड़ जाते हैं और फिर अपनी रासायनिक प्रक्रिया को प्रकट करते हैं। यह सारी रासायनिक प्रक्रिया है। आज का शरीरविज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि शरीर में जैसा रसायन बनता है, वैसा भाव बनता है, वैसा आचरण बनता है, वैसा ही उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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