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१३४ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
परमाणु में अवस्थाएं होती रहती हैं। परमाणु अपनी अवस्थाओं का स्वयं कर्ता है। पुद्गल भी कर्ता है। आत्मा अपनी अवस्थाओं का कर्ता है । फर्क इतना है कि आत्मा इच्छापूर्वक कर्ता है और अचेतन है वह स्वभावतः कर्ता है। वह इच्छपूर्वक नहीं कर सकता। आत्मा चेतना है, ज्ञान है, इसलिए जब चाहे तब सुख करता है, जब चाहे तब दु:ख करता है। अपनी इच्छा के साथ करता है। प्रश्न होगा कि क्या दुःख की भी कोई इच्छा करता है। इस विषय में जैन दर्शन ने बहुत गहरा मंथन किया है। जो सुख की इच्छा करता है, वह दुःख की इच्छा जरूर करता है। जो जीने की इच्छा करता है, वह मरने की इच्छा जरूर करता है । सुख-दुःख का जोड़ा है। जीवन-मरण का जोड़ा है। एक की इच्छा नहीं होती। इच्छा होगी तो दोनों की होगी और नहीं होगी तो दोनों की ही नहीं होगी। दोनों आते हैं। जो व्यक्ति सुख की इच्छा करता है, वह दुःख की इच्छा करता है, जरूर करता है।
गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा--भंते ! दुःख कौन करता है? भगवान ने उत्तर दिया-अपनी आत्मा करती है । दु:ख आत्मा के द्वारा कृत है, दूसरे के द्वारा कृत नहीं है। यह आत्म-कर्तृत्व का सिद्धान्त है। सारा दायित्व स्वयं पर है। दूसरा कोई इसके लिए उत्तरदायी नहीं है। सारा उत्तरदायित्व स्वयं व्यक्ति पर है।
बहुत बार ऐसा होता है कि व्यक्ति अच्छा काम करता है। कोई पूछता है कि किसने किया तो उत्तर देगा कि मैंने किया। जब कोई गलत काम हो गया, बुरा काम हो गया, पूछेगा कि किसने किया तो कहेगा कि पता नहीं या कहेगा कि अमुक ने कर दिया। बुरे काम का उत्तरदायित्व आदमी अपने ऊपर लेना नहीं चाहता। अच्छे काम का दायित्व अपने पर ही ओढ़ना पसन्द करता है, दूसरे को देना नहीं चाहता। यह एक स्वाभाविक मनोवृत्ति है। किन्तु इस विषय में जैन दर्शन का सिद्धान्त है कि अच्छा-बुरा जो जैसा है, प्रत्येक कार्य के लिए व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है। न कोई परमात्मा उत्तरदायी है, न कोई दूसरा व्यक्ति उत्तरदायी है, न कोई पदार्थ उत्तरदायी है। व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है। अपने उत्तरदायित्व
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