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________________ हम हैं अपने सुख-दुःख के कर्ता हमारी दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं हैं, जिसने दुःख न भोगा हो । प्रत्येक व्यक्ति कभी सुख और कभी दुःख भोगता रहता है। आदमी सुख चाहता है, दुःख नहीं । चाही वस्तु मिले तब तो ठीक-ठाक है पर अनचाही वस्तु मिलती है तब प्रश्न होता है कि यह दुःख कहां से आया है। जहां से सुख आया है वहां से दुःख आया। जैसे सुख आया, वैसे ही दुःख आया । घर दोनों का एक ही है। एक ही दरवाजे से दोनों आते हैं। एक ही दरवाजा है, उससे आदमी भी आ गया, कुत्ता भी आ गया, गधा भी आ गया। दोनों का स्रोत एक है। पर प्रश्न होता है कि आदमी सुख चाहता है, सुख के लिए उद्यम करता है ? इसका उत्तर मिला कि अपनी आत्मा ही सुख को करने वाली है, अपनी आत्मा ही दुःख को करने वाली है। दूसरा कोई न सुख करने वाला है और न दुःख करने वाला है । क्या सुख-दुःख करने वाला ईश्वर नहीं है? कोई नहीं है । दूसरा कोई नहीं है । आत्मा स्वयं है । बात उलझी हुई है कि ईश्वर को तो कर्ता नहीं माना आत्मा को कर्ता मान लिया तो ईश्वर को ही कर्ता मान लेते है । इस पर जैन दर्शन ने अपना चिन्तन प्रस्तुत किया कि मूल तत्त्व का कर्ता कोई नहीं है । न आत्मा है, न परमात्मा है। सुख और दुःख में कोई मूल तत्त्व नहीं हैं। ये तो पर्याय हैं। यह एक अवस्था है। मनुष्य भी मूल तत्त्व नहीं है । मूल तत्त्व है आत्मा । मनुष्य है एक पर्याय । एक अवस्था । मूल तत्त्व है परमाणु। यह घर बना, कपड़ा बना, बर्तन बना, घड़ा बना, जितनी चीजें बनीं, ये मूल तत्त्व नहीं हैं। मूल तत्त्व है परमाणु । मूल तत्व है आत्मा । परमाणु का कर्ता कोई नहीं है। आत्मा का कर्त्ता कोई नहीं है। किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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