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________________ १३२ / जैन दर्शन के मूल सूत्र पर दो मार्ग सामने आते हैं। एक है संवर का मार्ग और दूसरा है निर्जरा का मार्ग । पुराने संस्कार क्षीण हों और नये संस्कार न बनें - यह है निर्जरा और संवर का कार्य। ध्यान के द्वारा दोनों बातें होती हैं। संवर भी होता है और निर्जरा भी होती है। प्रेक्षा का अर्थ है - वर्तमान में जीना । जब वर्तमान क्षण का अनुभव होता है, तब संवर अपने आप होता है । उस समय न विचार होता है, न विकल्प होता है और न भाव होता है । उस समय आत्मा का तीव्र प्रयत्न होता है, झटका लगता है और तब पुराने संस्कार निर्जीर्ण होते हैं। समस्या के समाधान की अन्तिम प्रक्रिया है--संवर और निर्जरा की साधना । पुराने संस्कारों का समाप्त होना और नये संस्कारों का निर्माण न होना । भगवान महावीर ने समस्या की मूलग्राही दृष्टि दी। उन्होंने कहा - मूल को पकड़ो, उसको नष्ट करो। सब समस्याएं सुलझ जाएंगी। जब समस्या की पकड़ ठीक होगी तो उसका समाधान भी ठीक होगा। संवर की पकड़ आएगी तो स्थायी समाधान मिलेगा। टालस्टाय के पास एक भिखारी आया। उसने भीख मांगी, टालस्टाय बोले --- भीख मांगना उचित नहीं है। श्रम करो और रोटी कमाकर खाओ । भिखारी बोला - श्रम करने का साधन ही नहीं है मेरे पास । क्या करूं? टालस्टाय ने उसे उपकरण दिए । वह भीख मांगना छोड़कर श्रम करने लगा । यह है समस्या का मूलस्तरीय समाधान। टालस्टाय ने उस भिखारी को सहारा भी दिया और भीख मांगना भी छुड़ा दिया । यह है समस्या के प्रति मही दृष्टिकोण | इस प्रक्रिया से आध्यात्मिक समस्याओं के समाधान के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्याओं का भी सही समाधान प्राप्त हो सकता है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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