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जीव चैतन्य सम्बन्धवाद / ११७
एक है ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अवस्था और दूसरी है उस व्यक्ति के क्षयोपशम की अवस्था जिसमें दर्शन मोहनीय कर्म का उदय है। एक दर्शन मोहनीय शून्य व्यक्ति का क्षयोपशम और दूसरा दर्शन मोहनीय के उदयावस्था वाले व्यक्ति की अवस्था। __ इसमें पात्र का भेद है। पात्र में अन्तर होने के कारण ज्ञान भी दो अवस्थाओं में परिवर्तित हो गया। पात्र के संसर्ग से वस्तु के स्वभाव में बदलाव आ जाता है। दूध सफेद होता है। उसे यदि सफेद पात्र में डाला जाए तो कोई अन्तर नहीं आएगा। यदि उसे लाल या नीले बर्तन में डाला जाए तो उसका रंग बदल जाएगा। पात्र भेद की दृष्टि से ही ज्ञान की अवस्था को दो भागों में बांटा गया है।
यह ज्ञान और चैतन्य में भेद-अभेद दोनों का व्यक्त करने वाला एक महत्वपूर्ण सूत्र है । सर्वथा अभेद होने पर ज्ञान और अज्ञान ये दो अवस्थाएं नहीं बनती। ज्ञान और चैतन्य के बीच जो सम्बन्ध सूत्र है, उससे भेद का स्वरूप सहज उभरता है।
ज्ञान आत्मा ही है, अनात्मा नहीं है। पर आत्मा के निमित्त से ज्ञान भी विभक्त हो गया। आत्मा के दो भेद हैं-मिथ्यादृष्टिकोण वाली आत्मा, सम्यक दृष्टिकोण वाली आत्मा। आत्मा मिथ्यादर्शन से युक्त है तो ज्ञान अज्ञान कहलाता है। यदि आत्मा सम्यक् दर्शन से संयुक्त है तो वह ज्ञान है। यह पात्रजनित भेद है।
आत्मा ज्ञान से भिन्न हो सकती है पर ज्ञान आत्मा से भिन्न नहीं है। अज्ञानावस्था में ज्ञान का अभाव होता है पर आत्मा का नहीं।
दर्शन के सन्दर्भ में यही प्रश्न उभरता है कि आत्मा दर्शन है या दर्शन अन्य। इस प्रश्न को अभेद दृष्टि से उत्तरित करते हुए भगवान महावीर ने कहा- आत्मा दर्शन है और दर्शन आत्मा है। दर्शन सम्यक भी होता है, मिथ्या भी होता है। यहां दर्शन शब्द का एक सामान्य अर्थ देखना ही विवक्षित है।
भारतीय दर्शन में दो शब्द बहुचर्चित रहे हैं जीव और जीवात्मा। वेदान्त के अनुसार जो मूल आत्मा है वह जीव है। ब्रह्म जीव है, व्यापक
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