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________________ ११६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र स्वतोऽनुवृत्ति व्यतिवृत्तिभाजो भावानभावान्तरनेयरूपाः परात्मतत्वादतथात्मतत्वाद् द्वयं वदन्तो कुशलाःस्खलन्ति। पदार्थ स्वभाव से ही सामान्यविशेषात्मक है। उसके इस स्वभाव को जानने के लिए किसी अन्य पदार्थ की कल्पना आवश्यक नहीं है। कुछ सामान्य-विशेष में सर्वथा भेद की कल्पना करते हैं और कुछ सामान्य विशेष में अभेद को प्ररूपित करते हैं। एकान्त दृष्टि से इस प्रकार का कथन करने वाले अकुशल व्यक्ति अपने पथ से स्खलित होते हैं। जैन दर्शन ने जीव और चैतन्य में अविनाभावी सम्बन्ध माना है। जीव के बिना चैतन्य नहीं है और चैतन्य के बिना जीव का अस्तित्व नहीं है। एक के बिना दूसरा नहीं होता। एक द्रव्य है दूसरा गुण है । एक द्रव्य है, दूसरा उसका पर्याय है। उन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता। द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिता। क्व कदा केन किं रूपात्, दृष्टा मानेन केन वा। द्रव्य और पर्याय को एक दूसरे से पृथक् कब देखा है? कहां देखा है? कैसे देखा है? किसने किस रूप में देखा है। जैन दर्शन की प्रतिपादन पद्धति है अनेकान्त। इस पद्धति से भेदात्मक विवक्षा भी की जा सकती है, अभेदात्मक विवक्षा भी हो सकती है। प्रस्तुत प्रसंग में अभेद दृष्टि से विचार किया गया है। जीव चैतन्य है और चैतन्य जीव है। यहां द्रव्य और गण की एकात्मकता का प्रतिपादन किया गया है। इसका दूसरा पक्ष है-भेदात्मक। यदि हम जीव और चैतन्य को सर्वथा एक ही मान लें तो दोनों का भिन्न-भिन्न निरूपण करने की आवश्यकता ही नहीं है। इनमें भेद भी है। __भगवती सूत्र में एक प्रश्न और उठाया गया है-आत्मा ज्ञान है या अज्ञान । आत्मा ज्ञान भी है अज्ञान भी है, पर ज्ञान नियमत: आत्मा है। वह आत्मा से पृथक् नहीं है। चैतन्य की दो अवस्थाएं है-ज्ञानावस्था और अज्ञानावस्था। इसका अर्थ है ज्ञान और आत्मा सर्वथा एक नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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