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जीव चैतन्य सम्बन्धवाद
गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- जीवे णं भंते! जीवे? जीवे
जीवे ?
'गोयम ! जीवे ताव नियमा जीवे जीवे वि नियमा
जीवे ।
प्रश्न भी पहेली, उत्तर भी पहेली । आगमों में अनेक स्थलों पर प्रहेलिका प्रणाली द्वारा तत्त्व का प्रतिपादन हुआ है। इन दो रहस्यमय प्रश्नों को एक वाक्य में कहा जा सकता है- क्या जीव जीव है? इसका उत्तर भी एक वाक्य में दिया गया है— जीव नियमतः जीव है ।
भगवती टीकाकार ने इस प्रहेलिका को प्रशस्य ढंग से सुलझाया है । प्रस्तुत प्रसंग में एक जीव शब्द के द्वारा जीव का ग्रहण है, दूसरे के द्वारा चैतन्य का । एक द्रव्य का ग्राहक है, दूसरा गुण का । जीव शब्द का प्रयोग जीव द्रव्य के लिए भी हुआ है, चैतन्य गुण के लिए भी हुआ है ।
द्रव्य और गुण के सम्बन्ध में अनेक दार्शनिकों के विभिन्न मत सामने आए हैं। द्रव्य और गुण अभिन्न हैं या भिन्न? दोनों में परस्पर क्या सम्बन्ध है ? इन प्रश्नों के समाधान में अनेक विचार प्रस्फुटित हुए हैं । कुछ दार्शनिक मानते हैं- द्रव्य और गुण सर्वथा अभिन्न हैं 1 नैयायिक वैशेषिक द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न स्वीकार करते हैं । उनका कथन है- द्रव्य और गुण में समवाय के द्वारा सम्बन्ध स्थापित होता है । ये विचार जीव और चेतना में एकान्ततः अभेद या भेद को व्यक्त करने वाले हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने इनको उद्धृत करते हुए लिखा
भगवान ने कहा
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