________________
११२ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
पुद्गल अचेतन है उसे यह ज्ञान नहीं होता है कि कौन सा द्रव्य कब काम में लेना चाहिए। उसमें ग्रहण क्षमता भी नहीं है। इसलिए वह परिभोग्य है, भोक्ता नहीं है ।
सांख्य दर्शन में प्रकृति अचेतन होने से भोग्य है । पुरुष सचेतन होने के कारण भोजक है । उसमें ग्राहयता का हेतु नहीं है क्योंकि वह पुरुष को ग्राहक नहीं मानता। सांख्य प्रकृति को सक्रिय तथा पुरुष को निष्क्रिय मानता है। जबकि जैन दर्शन मूर्त आत्मा को भी सक्रिय मानता है। जैन एवं सांख्य की मान्यता में यह एक मौलिक अन्तर है । परिभोग्य एवं परिभोक्ता के संदर्भ में इन दोनों के मत में समानता है पर कारणों में भिन्नता है ।
भोक्तृत्व की प्रक्रिया है— ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग । सर्वप्रथम हम पुद्गलों का ग्रहण करते हैं फिर उन्हें तद्रूप में परिणत करते हैं । यदि हमने भाषा वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण किया है तो भाषा के रूप में उनका परिणमन होगा। यदि हमने मनोवर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण किया है तो मन रूप में उनका परिणमन होगा। जब तक ग्रहण किए हुए पुद्गलों का तद्रूप में परिणमन नहीं होता तब तक वे हमारे लिए उपयोगी नहीं बन सकते। ग्रहण के समय जो पुद्गल होते हैं वे भाषा या मन के प्रायोग्य होते हैं । परिणमन होने पर वे मन या भाषा के पुद्गल बन जाते हैं। उसके बाद जो विसर्जन का काल है वही वस्तुतः भाषा है ।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जीव में सचेतनत्व और ग्राहकत्व ये दो क्षमताएं है। पुद्गल में अचेतनत्व और ग्राह्यत्व ये दो अर्हताएं हैं। इन दोनों के योग से जीव और पुद्गल में भोग्य भोजक का सम्बन्ध निर्मित होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org