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________________ जीव-पुद्गल : भोक्तृ-भोग्यसंबंधवाद दो तत्त्व हैं जीव और पुद्गल । दोनों में भोक्ता कौन? जीव अजीव का भोग करता है या अजीव जीव का भोग करता है? सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष भोक्ता है, प्रकृति भोग्य है । प्रकृति अचेतन है । अचेतन तत्त्व अपने कार्य का उपयोग नहीं कर सकता। उसका उपभोग करने के लिए कोई चेतन तत्त्व चाहिए। सुख-दुःख संताप आदि का जनक प्रकृति है पर उसका भोक्ता पुरुष है। शरीर में चोट लगने पर कष्ट होता है। शरीर कष्ट का उत्पादक तत्त्व है। __ भगवान महावीर से पूछा गया-क्या जीव द्रव्य के परिभोग में अजीव द्रव्य आते हैं या अजीव द्रव्य जीव द्रव्य का परिभोग करता है? भगवान ने कहा-जीव द्रव्य अजीव द्रव्य का परिभोग करता है। अजीव जीव का भोग नहीं कर सकता। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए भगवान ने कहा-जीव द्रव्य पहले अजीव द्रव्य का ग्रहण करता है। ग्रहण के पश्चात वह उसका औदारिक आदि पांच शरीरों के रूप में, श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों के रूप में, मन, वचन, काया एवं श्वासोच्छ्वास के रूप में भोग करता है। अजीव भोक्ता नहीं होता, भोक्ता जीव ही होता है। 'जीव द्रव्याणि परिभोजकानि अचेतनत्वेन ग्राहकत्वात् इतराणि तु परिभोग्यानि अचेतनया ग्राह्यत्वात्' जीव द्रव्य में सचेतनता है, ग्रहण की क्षमता है इसलिए वह भोक्ता है। सचेतन होने के कारण जीव यह जानता है कि कौन सा द्रव्य कब किस तरह काम में आएगा। उसमें पुद्गलों के ग्रहण की क्षमता है। ग्रहण क्षमता वाला ही भोक्ता हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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