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मूर्तामूर्तवाद
जीव अमूर्त है, शरीर मूर्त है। क्या अमूर्त और मूर्त में सम्बन्ध स्थापित हो सकता है? क्या अमूर्त पदार्थ मूर्त को प्रभावित कर सकता है? क्या मूर्त से अमूर्त प्रभावित होता है? दार्शनिक क्षेत्र में ये प्रश्न चर्चित होते रहे हैं। भगवती सूत्र में इन प्रश्नों के समाधान उपलब्ध होते हैं।
गौतम ने पूछा-भगवन्! क्या महान ऐश्वर्यवाला महर्षि देव पहले रूपी होकर अरूपी तत्व का निर्माण करता है?
भगवान ने कहा- नहीं?
गौतम-देवता में रूप निर्माण की क्षमता है। वह मन इच्छित रूप बना सकता है। वह अरूपी रूप क्यों नहीं बना सकता?
भगवान-मैंने यह देखा है, जाना है, बोध किया है। जो सरूप जीव है, वह अरूप तत्त्व का निर्माता नहीं बन सकता।
जीव का एक स्वरूप है सरूपता। जीव केवल अरूप नहीं है। सांख्यदर्शन जीव को नितान्त अमूर्त मानता है। इसलिए उसने सारा भार प्रकृति पर लाद दिया। जैन दर्शन जीव को सर्वथा अमूर्त नहीं मानता। उसके अनुसार जीव मूर्त भी है, अमूर्त भी है। ___ जीव मूर्त क्यों है? कर्म, राग, वेद, मोह, लेश्या और शरीर-इन सबके कारण जीव मूर्त है। ये सब जीव के साथ अत्यन्त सघनता से जुडे हुए हैं। जीव वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाला है। पुद्गल का लक्षण है वर्ण, गंध, रस और स्पर्श।
यह अनेकान्त का महत्वपूर्ण सूत्र है। जैन दर्शन के सिवाय अन्य कोई दर्शन जीव में स्पर्श आदि की विद्यमानता को स्वीकार नहीं करता।
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