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१०८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
हुए हैं, परस्पर स्नेह से प्रतिबद्ध हैं।
प्रस्तुत प्रसंग में कुछ शब्द विमर्शनीय हैं
'ओगाढा' अवगाढ शब्द अवगाहन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अवगाढ़ का अर्थ है- परस्परेण लोलीभावं गता, जीव और शरीर में परस्पर लोलीभाव सम्बन्ध है। सम्बन्ध अनेक प्रकार से होता है। सुई में धागा पिरोया, धागे से अनेक कागजों को जोड़ा गया। उनमें एक सम्बन्ध स्थापित हो गया। किन्तु उसे लोलीभाव सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता।
लोलीभाव सम्बन्ध में दो पदार्थ एकमेक हो जाते हैं। लोहे को अग्नि में गर्म किया गया। उसका वर्ण रक्तिम हो उठा। उस अवस्था में यह नहीं कहा जा सकता कि यह लोहा है या आग है। लोहा और आग अन्योन्यवेध हो जाते हैं, एक दूसरे के भीतर अनुप्रविष्ट हो जाते हैं। उस अवस्था में उन दोनों की एकात्मता को पृथक् नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत प्रसंग में यही अर्थ अधिक संगत है।
सिणेह-स्नेह शब्द के अनेक अर्थ हैं। स्निग्ध का प्रचलित अर्थ है'चिकनाई। 'स्निग्धरूक्षत्वाद्' यहां स्निग्ध का अर्थ चिकनाई नहीं है। यहां स्निग्ध का अर्थ है-विधायक शक्ति/पोजिटिव और रूक्ष का अर्थ है-निषेधात्मक शक्ति/नेगेटिव, यह अर्थ सामान्यतः पकड़ा नहीं गया।
ब्रिटेनिका इनसाइक्लोपीडिया में इसी अर्थ को सही माना गया है। इन दो शक्तियों से विद्युत पैदा होती है। इसका सर्वप्रथम ज्ञान हिन्दुओं को था। इस तथ्य की पुष्टि के लिए उसमें तत्वार्थ सूत्र का सूत्र उद्धृत किया गया है।
मूलतः स्निग्ध और रूक्ष दार्शनिक शब्द हैं। इन दार्शनिक शब्दों का चालू अर्थ कर दिया गया। इनका दार्शनिक अर्थ है-धन शक्ति और ऋण शक्ति । जीव और पुद्गल में ऐसी शक्ति है, जिससे वे परस्पर जुड़ सकते
हैं।
जीव में धनात्मक शक्ति है। अजीव में ऋणात्मक शक्ति है। इन दोनों के मिलने की प्रायोग्यता, सम्बन्ध स्थापित करने की योग्यता स्नेह है।
टीकाकार ने इसका अर्थ किया है- 'स्नेहप्रतिबद्धा रागादिरूपः स्नेह । यह अर्थ संगत प्रतीत नहीं होता। जीव में राग होता है. स्नेह होता
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