________________
जीव-शरीर सम्बन्धवाद / १०७
पहला तत्त्व है। पांच इन्द्रियों में भी स्पर्शन इन्द्रिय अत्यन्त महत्वपूर्ण है । वह सबसे बड़ी है और सारे शरीर में व्याप्त है । अन्य सब इन्द्रियों के अपने-अपने नियत स्थान हैं। शरीर की पूरी सरंचना पांच इन्द्रियों में समा जाती है । इसी दृष्टि से कहा गया कि पांच इन्द्रियों की अपेक्षा से जीव पुद्गली है। ये संसारी अनुसंचरणशील जीव को पहचानने का प्रमुख माध्यम हैं ।
मुक्त जीव पुद्गल है, पुद्गली नहीं है। सिद्ध एक द्रव्य है, इस दृष्टि से पुद्गल है । उनके इन्द्रियां नहीं है, शरीर नहीं है इसलिए उन्हें पुद्गली नहीं कहा जा सकता ।
जीव अजीव नहीं बनता और अजीव जीव में परिणत नहीं होता । अजीव - प्रतिष्ठित जीव ही हमें दिखाई देता है। केवल जीव को स्थूल दृष्टि से देखना सम्भव नहीं है। जीव के व्यक्त होने का माध्यम है अजीव / पुद्गल ।
भारतीय दर्शन का एक महत्वपूर्ण विषय रहा है - तज्जीव तच्छशरीरवाद । वही जीव है, वही शरीर है तो उनमें सम्बन्ध खोजने की कोई अपेक्षा नहीं है। राजप्रश्नीय सूत्र तथा सूत्रकृतांग सूत्र में इस विषय को स्पष्ट किया गया है। अद्वैतवादी दार्शनिक जीव और शरीर को एक मानते हैं इसलिए उनमें सम्बन्ध क्या है? यह प्रश्न उनके सामने नहीं है । द्वैतवादी जीव और शरीर को अलग-अलग मानते हैं। उनके सामने यह प्रश्न है कि यदि जीव और शरीर पृथक् हैं तो उनमें क्या सम्बन्ध है ? उनमें सम्बन्ध कैसे स्थापित होता है? उनका सम्बन्ध-सूत्र क्या है ?
जैन दर्शन ने जीव और शरीर में सम्बन्ध को प्रस्थापित किया है । यदि इन दोनों को सर्वथा पृथक मानें तो इन दोनों को ही व्याख्यायित करना सम्भव नहीं है । हमारे सारे आवरण और व्यवहार की व्याख्या भी जीव और शरीर के सम्बन्धों पर आधारित है ।
भगवती में इनके सम्बन्ध सूत्र को विवेचित करते हुए कहा गयाजीव और पुद्गल (शरीर) एक दूसरे से बंधे हुए हैं, एक दूसरे को छू रहे हैं, एक दूसरे का अवगाहन कर रहे हैं, एक दूसरे के आधार पर ठहरे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org