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महावीर का अर्थशास्त्र भूख की चिन्ता कहां है?
पूंजीवादी अर्थशास्त्र का यही तो दर्शन है—आबादी बढ़ने पर विशाल कारखानों का जाल न बिछाएं तो उसकी आवश्यकताओं कोष्ठूरा नहीं किया जा सकता। हमारी अनिवार्यता है बड़े कारखानों का निर्माण करना । इस तर्क में दम है। यह चिन्तन बिल्कुल बकवास नहीं है । किन्तु यह तर्क तब ज्यादा सार्थक होता, जब बड़े कारखानों में बड़े पैमाने पर कृषि और रासायनिक द्रव्यों का प्रयोग मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति में होता । यथार्थ यह है—बड़े कारखानों और उनके द्वारा प्राप्त होने वाली बड़ी सम्पत्ति का उपयोग उस आवश्यकता की पूर्ति में नहीं हो रहा है। उसका प्रयोग मनुष्य पर अपना अधिकार और प्रभुत्व जमाने की दिशा में ज्यादा हो रहा है । मनुष्य की भूख की चिन्ता होती तो परमाणु बम की दिशा में प्रस्थान नहीं होता । यह क्यों हुआ? यह कोई आवश्यकता की पूर्ति तो नहीं है ? अन्तरिक्ष की ओर प्रस्थान क्यों हुआ है? लोभ है पृष्ठभूमि में
विज्ञान ने सत्य को खोजा है, यह बात सत्य है किन्तु अधूरी बात है। महावीर ने सत्य की खोज के साथ यह निर्देश भी दिया-सबके साथ मैत्री करें। अगर सत्य की खोज के साथ यह सूत्र भी जुड़ा रहता तो न परमाणु अस्त्र बनाने की जरूरत होती और न दुनिया का इतना बड़ा बजट शस्त्र-निर्माण में लगता। मैत्री की बात छोड़कर केवल सामाजिक गरीबी, सामाजिक भूख मिटाने के लिए कितने बड़े-बड़े कल-कारखाने और बड़े पैमाने पर कृषि-उत्पादन का प्रयत्न और आयोजन चल रहा है। यह तर्क अपने आप में शून्य होता चला जा रहा है। वक्तव्य एक दिशा में है
और गति दूसरी दिशा में हो रही है। भूमि पर, जल पर या आकाश में अपना प्रभुत्व स्थापित करना, बाजार पर प्रभुत्व स्थापित करना--सारा प्रयत्न इसी दिशा में हो रहा है। इन सब उपक्रमों के पीछे है लोभ । इसके परिणाम भी सामने आ रहे हैं। इसीलिए एक नया विचार सामने आया—आज पंजीवादी और साम्यवादी अर्थशास्त्र मानव जाति के कल्याण के लिए नहीं है। अब नए अर्थशास्त्र की कल्पना करनी चाहिए। अनेकान्त का मार्ग
समस्या यह है—युग इतना आगे बढ़ गया है कि अब दो हजार वर्ष, ढाई हजार वर्ष पहले के युग में उसे ले जाना असंभव है। गांधीजी सा सादा जीवन जीना बड़ा कठिन है। गांधीजी ने दो हजार वर्ष पहले का जीवन जिया था किन्तु
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