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पर्यावरण और अर्थशास्त्र है। किन्तु उपयोगिता की दृष्टि से विचार करें तो हमारे काम आ सके, उसकी सीमा बहुत छोटी है।
जैन दर्शन में उपयोगिता की दृष्टि से इस पर बहुत सूक्ष्म विचार हुआ है। कर्मशास्त्र में कहा गया है— एक परमाणु स्कंध है, जो भाषा के लिए काम में आता है। हम बोलते हैं, तब पौद्गलिक स्कंधों को ग्रहण करते हैं। वह उसके लिए काम आ सकता है, खाने के लिए काम आ सकता है किन्तु कर्मबन्धु के लिए काम में नहीं आ सकता। कर्मबन्ध के लिए और अधिक गहरा स्कंध चाहिए। अनंत-अनन्त प्रदेश उसमें और मिल जाएं, तब वह हमारे काम में आता है। सीमित हैं संसाधन
हमारी दुनिया उपयोगिता की दृष्टि से चलती है ।श्वासोच्छ्वास के स्कंध, भाषा, के स्कंध, मनन के स्कंध, शरीर के स्कंध—ये सारे उपयोगिता में आने वाले स्कंध बहुत सीमित हैं। जो स्थूल स्कंध बाहरी द्रव्य बनते हैं, वे और भी सीमित हैं। असीम लालसा की पूर्ति के लिए इन सीमित संसधानों की उपस्थिति अपर्याप्त है
और यही संघर्ष का कारण है। हर राष्ट्र अधिक से अधिक संसाधनों को प्राप्त करना चाहता है। एक विकसित राष्ट्र चाहता है—हमारी विकास की अवधारणा सफल बने । सफलता के शिखर पर जाने के लिए अनेक राष्ट्रों के संसाधनों का शोषण किया जाता है। एक शक्ति-सम्पन्न राष्ट्र ऐसा कर लेगा, दो राष्ट्र ऐसा कर लेंगे, चार कर लेंगे, किन्तु शेष का क्या होगा? वे कैसे कर पाएंगे? उनके पास तो कुछ बचेगा ही नहीं । समस्या वैसी ही बनी रहेगी। इसलिए आज इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता
दो महत्त्वपूर्ण निर्देश
भगवान महावीर ने अपने व्रती समाज के लिए जो निर्देश दिए थे, उनमें दो निर्देश ये हैं
• वणकम्मे जंगलों की कटाई न हो। . फोडीकम्मे-भमि का उत्खनन न हो।
ये दोनों निर्देश पर्यावरण की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। वणकम्मे और फोड़ीकम्मे-ये दो शब्द नए अर्थशास्त्र की नींव बन सकते हैं। यद्यपि एक समस्या है-उस समय आबादी कम थी। आज बहुत बढ़ गई है। एक समय होता है आबादी बढ़ जाती है और एक समय आता है, आबादी घट जाती है। आबादी बढ़ी है इसलिए आवश्यकताएं भी बहुत बढ़ गई हैं।
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