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महावीर का अर्थशास्त्र जटिल है भावात्मक समस्या
सबसे ज्यादा जटिल है भावात्मक समस्या। आर्थिक सम्पदा बढ़ाने के लिए लोभ को खुली छूट दी गई। जितना लोभ बढ़ाओ, आकांक्षा बढ़ाओ, उतना ही धन बढ़ेगा। इसका परिणाम यह आया-भावात्मक समस्याएं पैदा हो गई । एक सम्पन्न आदमी सम्पन्नतर और सम्पन्नतम बनना चाहता है। अधिक से अधिक सम्पन्न बनने की दौड़ है। संसाधन सीमित हैं। यदि असीम संसाधन होते तो शायद समस्या इतनी नहीं गहरती। असीम लालसा के लिए साधन भी असीम होने चाहिए लेकिन वे असीम नहीं हैं। अनंत इच्छा और अनंत संसाधन की एक युति बन जाती तो दोनों में कहीं कोई संघर्ष नहीं होता, टकराव नहीं होता । समस्या यह है कि आकांक्षा, इच्छा अथवा लालसा असीम है और पदार्थ ससीम।
हम स्थूल जगत में जी रहे हैं । सूक्ष्म जगत् हमारा बहुत विशाल है । यदि उसे पकड़ पाते तो शायद पूर्ति के साधन भी बहुत विस्तृत बन जाते । हम जिस हाल में बैठे हैं, उसमें भी असीम सूक्ष्म पदार्थ हैं । पदार्थ में जितने सूक्ष्म तत्त्व हैं, उन्हें पकड़ा जा सके तो दिल्ली, जो लगभग एक करोड़ की आबादी वाला शहर बनता जा रहा हैं, खाद्य की पूर्ति इस हाल जितनी जगह से की जा सकती है। बाहर कहीं से भी अनाज मंगाने की, दूसरी चीजें मंगाने की आवश्यकता ही न रहे। यह एक हाल पर्याप्त होता इतना विराट् है हमारा सूक्ष्म जगत् किन्तु वह हमारे काम नहीं आ रहा है। वह हमारी पकड़ से बाहर है। उसका उपयोग हम नहीं कर सकते। कुछ-कुछ ऐसे योगी हुए हैं, जो सूक्ष्म को पकड़ने लग गए थे। उन्हें वायुपक्षी कहा गया। उन्हें खाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। भूख लगती तो पोषक अन्न की जरूरत नहीं, थोड़ी-सी हवा ले लेते, पूर्ति हो जाती। वायुभक्षी हवा से काम चला देते थे, किन्तु वह शक्ति आज किसी में नहीं है। उपयोगिता की दृष्टि ____ हम केवल स्थूल पदार्थ के आधार पर जी रहे हैं । जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है- अनन्तप्रदेशी स्कंध । स्कंध दो प्रकार के हैं- अनन्त परमाणओं से बना हुआ सूक्ष्म स्कंध और अनन्त परमाणुओं से बना हुआ स्थूल स्कंध ।जो अनन्त परमाणुओं से बना हुआ सूक्ष्म स्कंध है, वह भी हमारे काम नहीं आता। अनंत परमाणुओं से बना हुआ स्थूल स्कंध ही हमारे काम आता है। हमारे उपयोग की सीमा बहुत छोटी हो गई। अस्तित्व की सीमा इस विराट् ब्रह्माण्ड में बहुत विशाल
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