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महावीर का अर्थशास्त्र सुख कहां है?
यही प्रकृति उपभोक्तावाद की है। बाजार में सजी हुई तड़क-भड़क वाली वस्तुएं, जो उपभोक्ताओं को ललचा रही हैं, अपने जाल में फंसा रही हैं, वे एक दिन इक्षु की तरह विरस हो जाएंगी। एक महिला ने आज पांच सौ रुपए की आकर्षक साड़ी खरीदी। पड़ोस में ही दूसरी महिला ने हजार रुपए की उससे भी अधिक अच्छी साड़ी खरीद ली। पांच सौ रुपए की साड़ी ने जो सख दिया, वह विलीन हो गया। एक व्यक्ति ने हजार रुपए में घड़ी खरीदी । दो दिन बाद उसके मित्र ने दो हजार की घड़ी खरीद कर बांध ली। जो व्यक्ति हजार रुपए की घड़ी खरीद कर सुख और संतोष का अनुभव कर रहा था, वही तत्काल दुःखी बन जाएगा। समय दोनों घड़ियां ठीक बता रही हैं, किन्तु दो हजार रुपए वाली घड़ी हजार रुपए की घड़ी वाले व्यक्ति को दुःखी बना देती है।
प्रश्न उभरता है-आज का उपभोगवादी दृष्टिकोण मनुष्य को सुखी बना रहा है या दुःखी बना रहा है? इस सचाई को समझ लें तो सीमाकरण की बात और उसका औचित्य हमारी समझ में आ जाएगा। मोहपाश से छूटें
___ महावीर ने अपने व्रती समाज के लिए व्यक्तिगत स्वामित्व का सीमाकरण और उपभोग का सीमाकरण-ये दोनों दर्शन दिए। इन्हीं दोनों के आधार पर समाज का निर्माण किया। फलत: वह समाज सुखी, स्वस्थ और शान्त जीवन जीता था। आज अपेक्षा है-हमारे वर्तमान के अर्थशास्त्री और वर्तमान के उपभोक्तावादी लोग उस सत्य का साक्षात् करें, केवल सम्मोहन में न जाएं । आज का उपभोक्तावादी दृष्टिकोण एक प्रकार का सम्मोहन बन गया है, हिस्टीरिया की बीमारी बन गया है। सम्मोहन करने वाला जैसा नचाएगा. उपभोक्ता वैसा ही नाचेगा। आज का उपभोक्ता बाजार और विज्ञापनों के हाथ की कठपुतली है। इस मोहपाश से छूटे तो समाज अधिक सुखी और शान्तिपूर्ण जीवन जीने वाला समाज बन सकता है।
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