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महावीर का अर्थशास्त्र अनियन्त्रित उपभोग
तीसरा तत्त्व है उपभोग। वर्तमान की उपभोक्तावादी संस्कृति ने उपभोग को अनियन्त्रित कर दिया है। उपभोग आवश्यक है, किन्तु जब से उपभोक्तावाद आया है, तब से इसकी इतनी अधिक वृद्धि हुई है कि इससे स्वास्थ्य, मन और चेतना–तीनों प्रभावित हुए हैं।
अनियंत्रित समाज का परिणाम क्या होगा? इच्छापूर्ति के लिए, आवश्यकता को बढ़ाने और उसे पूरा करने के लिए हिंसा आनिवार्य हो जाती है । नया उपभोक्तावाद एक प्रकार से नई हिंसा का उपक्रम है। हिंसा को इससे नया आयाम मिला है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक लालसा है कि इतना उपभोग तो आवश्यक है। वह पूरा नहीं होता है तो फिर उसे येन-केन प्रकारेण पूरा करने का प्रयत्न होता है। अपहरण, चोरी या हत्या करके भी उसे प्राप्त किया जाता है क्योंकि वह लक्ष्य बन जाता है। आज के अर्थशास्त्र में नैतिक विचार के लिए अवकाश कम है या बिल्कुल नहीं है । नैतिक, मानवीय और जीवन मूल्यों की इसमें कोई आवश्यकता नहीं मानी जाती। इस स्थिति में जैसे-जैसे प्राप्त करना ही एक मात्र लक्ष्य बन जाता है। दूसरा चित्र
समाज का दूसरा चित्र है-नियंत्रित इच्छा, आवश्यकता और उपभोग वाला समाज । जिसने इच्छा को सीमित किया है, वह कभी दःखी नहीं बनेगा। वह इस सचाई को जानता है-इच्छा को कभी पूरा नहीं किया जा सकता। इसलिए वह पहले ही उस पर नियंत्रण कर दुःख का एक दरवाजा बन्द कर देता है। - जीवन की प्राथमिक आवश्यकता व्यक्ति को सताती नहीं है । वह सताती है, जो काल्पनिक और कृत्रिम रूप से पैदा की गई है। वह पदार्थ के प्रति एक आकर्षण या सम्मोहन पैदा करती है । एक दिन आकर्षण मुख्य हो जाता है, आवश्यकता गौण हो जाती है। भोग की प्रकृति आचार्य पूज्यपाद ने बहुत मार्मिक लिखा है
प्रारंभे तापकान् प्राप्तौ अतृप्तिप्रतिपादकान्।
अंते सुदुश्त्यजान् कामान्, कामं कः सेवते सुधीः ।। काम की तीन स्थितियां बनती हैं—ताप, अतृप्ति और दुश्त्याज्यता । प्रारम्भ में पदार्थ ताप देता है। भोगकाल में उसका परिणाम होता है अतृप्ति । इस अतृप्ति
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