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व्यक्तिगत स्वामित्व एवं उपभोग का सीमाकरण
हमारे सामने समाज के दो चित्र हैं, दो प्रारूप हैं• अनियन्त्रित इच्छा, अनियंत्रित आवश्यकता और अनियंत्रित उपभोग वाला
समाज। • नियंत्रित इच्छा, नियंत्रित आवश्यकता और नियंत्रित उपभोग वाला समाज
इन दोनों की समीक्षा करें। जिस समाज की इच्छा अनियंत्रित है, आवश्यकता भी अनियंत्रित है, उपभोग भी अनियन्त्रित है, वह समाज कैसा होगा? जिस समाज की इच्छा, आवश्यकता और उपभोग नियंत्रित है, वह समाज कैसा होगा? अमित तृष्णा
हमारी दुनिया में प्रत्येक पदार्थ सीमायुक्त है। इकोलोजी का पहला सूत्र है-लिमिटेशनं । उपभोक्ता अधिक और पदार्थ कम। पदार्थ सीमित और इच्छा असीम, दोनों में संगति कैसे हो? एक व्यक्ति की इच्छा इतनी अधिक होती है कि उसे पूरा नहीं किया जा सकता। राजस्थानी का एक मार्मिक पद्य है
तन की तष्णा अल्प है तीन पाव या सेर।
मन की तृष्णा अमिट है, गले मेर के मैर।। तन की तृष्णा तो तनिक-सी है। पाव-दो पाव या बहुत ज्यादा सेर भर खाया जा सकता है। किन्तु मन की तृष्णा इतनी अधिक है कि मेरु पर्वत को भी निगल सकती है । अनियंत्रित इच्छा मनुष्य को सुख देने के लिए नहीं, उसे सताने के लिए, दुःख देने के लिए होती है । दुःख का पहला बिन्दु है अमित तृष्णा । वह पूरी होती नहीं है, भीतर ही भीतर शल्य की तरह पीड़ा देती रहती है। अनियंत्रित आवश्यकता
दसरा तत्त्व है आवश्यकता। आवश्यकता भी अनियन्त्रित है। आवश्यकता आगे चलकर कृत्रिम आवश्यकता का रूप ले लेती है और बढ़ती चली जाती है। इसे भी कभी पूरा नहीं किया जा सकता।
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