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व्यक्तिगत स्वामित्व एवं उपभोग का सीमाकरण का ही निर्दशन है वर्तमान के विकसित राष्ट्र । जो विकसित राष्ट्र कहलाते हैं, उन्होंने बहुत अर्जित किया है और यह सोचकर अर्जित किया है कि मानसिक तृप्ति होगी। किन्तु आज वहां इतनी अतृप्ति बढ़ गई है कि मानसिक शान्ति के लिए एक भटकाव शुरू हो गया है। विकसित देशों में लोग इधर-उधर दौड़ लगा रहे हैं कि कहीं से मानसिक शान्ति मिले । अतृप्ति पुन: सेवन के लिए विवश करती है । फिर वह एक आदत बन जाती है। उसे छोड़ना मुश्किल हो जाता है। आदमी जानता है-आइसक्रीम खाना आवश्यक नहीं है किन्तु उसके प्रति आकर्षण होता है। व्यक्ति उसके लिए प्रयत्न करता है। गरीब आदमी भी पैसा जुटाता है। एक बार खाने पर तृप्ति नहीं मिलती, फिर दूसरी बार खाता है और अन्त में छोड़ना कठिन हो जाता है । टान्सिल बढ़ जाए, दांत खराब हो जाए या कुछ भी हो जाए, उसे छोड़ा नहीं जा सकता। यही बात शराब की है। पहले-पहले शौकिया तौर पर शराब का सेवन शुरू करता है। फिर यही अतृप्ति उसे इसका गुलाम बना देती है, एक स्नायविक आदत बन जाती है और उसका परिणाम भोगना ही पड़ता है। ... ____ जोधपुर से सेना के एक अधिकारी का पत्र मिला । उसने लिखा था-आचार्यवर ! सेना में बड़े स्थान पर रहा। अब मैं सेवामुक्त हूं। शराब की आदत ने मेरे शरीर को जर्जर बना दिया है । छोड़ने का प्रयत्न करने पर भी छोड़ नहीं पा रहा हूं। आप कोई ऐसा मार्गदर्शन दें, जिससे मैं इस लत से छुटकारा पा सकू। __ सचमुच आदत छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है। जो सुधी हैं, विद्वान् हैं, चिन्तनशील हैं, वे प्रारम्भ में ही अपनी आवश्यकता को सीमित कर देते हैं । संतुलित भोजन जीवन के लिए आवश्यक है, किन्तु असंतुलित भोजन या ज्यादा खाना आवश्यक नहीं है । प्रत्येक पदार्थ की आवश्यकता के संदर्भ में यही नियम है। वर्तमान स्थिति यह है—नियंत्रण या सीमाकरण को महत्व कम दिया जा रहा है। भूख और आवश्यकता .. पहले भूख के लिए आवश्यकता बनती है, फिर आवश्यकता भूख बन जाती है। भूख के लिए आवश्यकता को तो पूरा किया जा सकता है, किन्तु आवश्यकता की भूख को पूरा करने के लिए इस दुनिया में न कोई साधन है और न कोई शक्ति है। न आज का अर्थशास्त्री इसे पूरा कर सकेगा, न कोई शासन या उसका वित्त मंत्रालय आवश्यकता की भूख को मिटा सकेगा। जिसके आवश्यकता की भूख जग जाती है, वह कभी दुःख से मुक्त नहीं हो सकता।
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