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अहिंसा और शान्ति का अर्थशास्त्र
का मूल स्रोत मिलता है महावीर के द्वारा प्रदत्त व्रत की आचार संहिता में । एक व्रत है दिव्रत - दिशा का परिमाण करो। दिल्ली में रहने वाला परिमाण करेगा - दिल्ली के बाहर की किसी वस्तु का उपभोग नहीं करूंगा। कपड़ा पहनूंगा तो दिल्ली में बना हुआ । अनाज खाऊंगा तो दिल्ली की सीमा में पैदा हुआ अनाज की खाऊंगा । यह दिग्व्रत है, जो स्वदेशी का मूल आधार है । महात्मा गांधी श्रीमद् राजचन्द्र की छत्रछाया में अहिंसा के सिद्धान्त को पल्लवित कर रहे थे। गांधीजी पर उनका प्रभाव था, इसलिए महावीर के सूत्रों को अपनाना उनके लिए स्वाभाविक था । विकेन्द्रित अर्थनीति, विकेन्द्रित उद्योग और स्वदेशी – ये तीनों महावीर की आचारसंहिता से आविर्भूत हुए हैं, प्रकट हुए हैं, ऐसा सहज ही माना जा सकता है । दिव्रत का उद्देश्य
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दिग्व्रत का एक उद्देश्य था - साम्राज्यवादी मनोवृत्ति पर अंकुश लगाना । आर्थिक साम्राज्य हो या भौगोलिक, एक विशेष सीमा से आगे नहीं जाऊंगा। यातायात की एक सीमा थी— पांच सौ किलोमीटर की सीमा से आगे नहीं जाऊंगा अथवा इस सीमा से आगे नहीं जाऊंगा। इसमें भी दिशा का प्रतिबंध था - ऊर्ध्व दिशा, तिर्यक् दिशा, अधोदिशा या अमुक दिशा में इतनी सीमा से आगे नहीं जाऊंगा। इस दिशा से बाहर मैं अपनी वस्तु का विक्रय नहीं करूंगा । न आयात करूंगा और न निर्यात | प्रतिबंध दिशा के साथ भी जुड़ा था। यह महत्वपूर्ण सूत्र साम्राज्यवादी मनोवृत्ति पर अंकुश लगाने में कारगर हुआ। संकल्प शान्ति के लिए
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आज उद्योगों के अग्रणी राष्ट्र, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन आदि यह निश्चय कर लें - हम अपनी वस्तुओं का निर्यात नहीं करेंगे तो आर्थिक साम्राज्य का यह भीषण युद्ध थम जाएगा, शान्ति और अहिंसा के प्रयत्न आवश्यक नहीं होंगे। केवल शान्ति ही शान्ति होगी, युद्ध का प्रश्न ही समाप्त हो जाएगा। आज शस्त्र निर्माण करने वाले देश यह संकल्प कर लें कि हम अपने द्वारा निर्मित शस्त्र का निर्यात नहीं करेंगे, अपने देश से बाहर नहीं भेजेंगे तो फिर युद्ध के खतरे स्वयं समाप्त हो जाएंगे ।
द्वैधनीति
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आज की कूटनीति की यह बड़ी हैरत और आश्चर्य की बात है – एक ओर एक राष्ट्र संधि और समझौते की बात कर रहा है, दूसरी ओर वही राष्ट्र दूसरे पक्ष को शस्त्र की भी सप्लाई कर रहा है । शान्ति का मध्यस्थ भी वही है और शस्त्र की आपूर्ति कर शस्त्रों की होड़ को बढ़ावा देने वाला भी वही है । यह द्वैधनीति ही
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