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महावीर का अर्थशास्त्र अब समूचे संसार में अपना प्रभुत्व स्थापित किए हुए है । जब युद्ध थमते हैं, शान्ति स्थापित होती है, शस्त्रों के निर्माता शक्तिशाली राष्ट्र विश्व के किसी न किसी कोने में युद्ध की चिनगारी सुलगा ही देते हैं। उद्देश्य है सिर्फ अपने हथियरों की खपत । तबाही मचाने वाला यह उद्योग शांतिकाल में खुद तबाह हो जाता है। शस्त्र का उद्योग एक प्रकार से युद्ध का चालू करने का आधार है। अरबों-खरबों डालर से चल रहे ये उद्योग हिंसा की बुनियाद पर खड़े हैं।..
हम पूरे विश्व की आर्थिक मीमांसा करें। सारे संसार में शस्त्र-निर्माण पर हो रहे खर्च को देखकर दंग रह जाएंगे। हिन्दुस्तान की सबसे अनिवार्य आवश्यकता है शिक्षा, जिससे व्यक्तित्व का, जीवन का निर्माण होता है। शिक्षा और सुरक्षा पर हो रहे खर्च की तुलना करें तो आकाश-पाताल का अंतर दिखाई देगा। शिक्षा पर मुश्किल से दो-तीन प्रतिशत व्यय होता है और सुरक्षा पर भारी-भरकम बजट बनते हैं। पूरे विश्व के संदर्भ में देखे तो आधी से भी ज्यादा पूंजी सुरक्षा पर खर्च हो रही है। यदि यह पूंजी गरीबी के उन्मूलन और शान्ति की स्थापना में लगे तो समाधान प्राप्त हो जाए। लेकिन ऐसा वे नहीं होने देगें, जो शस्त्र-उद्योग के स्वामी बने हुए हैं। उत्पादन का विवेक
अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण में एक विरोधाभास आ गया। उत्पादन किसका होना चाहिए, यह विवेक ही समाप्त हो गया। मादक वस्तुओं का कितना उत्पादन होता है। शराब का कितना बड़ा उद्योग है। अफीम, चरस, हेरोइन, ड्रग्स की बात जाने दें। पाउच पैक में उपलब्ध जर्दे और पान मसाले का ही करोड़ों का कारोबार हो रहा है। यह सब क्यों हो रहा है? तम्बाकू न हो तो जर्दा कहां से आए, अफीम न हो तो हेरोइन कहां से आए? उत्पादन की एक सीमा होनी चाहिए, एक विवेक होना चाहिए। किस वस्तु का उत्पादन बढ़े? जो जीवन की प्राथमिक अनिवार्यताएं नहीं हैं, उनका उत्पादन या तो विलासिता की ओर ले जाता है या मादकता की ओर ।
आखिर उन वस्तुओं का उत्पादन क्यों हो, जो मनुष्य के लिए हर दृष्टि से हानिकार हैं? कब्जा चेतना पर ... आज केवल आर्थिक लाभ के लिए किए जा रहे ऐसे हानिप्रद उत्पादनों ने पूरे विश्व के सामने भयंकर संकट खड़ा कर दिया है। भारत सहित दुनिया के तमाम राष्ट्र मादक पदार्थों की तस्करी से जूझ रहे हैं। शस्त्र के उद्योगपतियों ने जैसे बाजार
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