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महावीर का अर्थशास्त्र
था— अर्थार्जन में अप्रामाणिक साधनों का उपयोग नहीं करूंगा। इसी के आधार पर उसने अपना आर्थिक विकास किया था ।
धर्म और आर्थिक विकास
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आर्थिक विकास करने में कोई धर्म बाधा नहीं डालता। आधुनिक अर्थशास्त्र बहुत से विद्वानों ने कहा- हमारे धर्म कहते हैं, अंकुश लगाओ, यह मत करो, वह मत करो । निर्देश अनुपयोगी हैं, विकास में बाधक हैं। वस्तुतः हम प्रियता कोण से सोचते हैं, तभी ये बाधक लगते हैं। हित के कोण से सोचें तो पाएंगे — ये बाधक नहीं, साधक हैं। प्रियता और हित दोनों दृष्टियों से सोचें तो अर्थशास्त्र मनुष्य के लिए बहुत लाभकारी हो सकता है । केवल प्रियता की दृष्टि से विचार करेंगे तो पाएंगे - आज के अर्थशास्त्र ने मनुष्य- समाज में बहुत विकृतियां पैदा की हैं, उसे क्रूर बनाया है, शोषण के रास्ते पर अग्रसर किया है 1 विद्यमान है साम्राज्यवादी मनोवृत्ति
आज टेक्नोलोजी का बहुत विकास हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है । किन्तु उसके साथ यदि करुणा रहती तो शायद मनुष्य जाति के लिए इतना खतरा पैदा नहीं होता। टेक्नोलोजी का प्रयोग जिस सूक्ष्मता के साथ संहार की दिशा में हुआ है, उतना लाभ की दिशा में नहीं हुआ है। इसका कारण यही है कि साम्राज्यवादी मनोवृत्ति मनुष्य में विद्यमान है। एक समय था जब भूखण्ड का साम्राज्य चलता था। भूमि पर अधिकार करो, अधिकाधिक जमीन हड़पो, यह एक प्रकार का भौगोलिक साम्राज्यवाद था | आज आर्थिक साम्राज्यवाद का युग है। आज महत्व इस बात का नहीं है कि भूमि कितनी है, महत्व इस बात का है कि हाथ में बाजार कितना है । जापान एक छोटा देश है, बहुत ज्यादा जनसंख्या वाला देश नहीं है, किन्तु विश्व बाजार में वह सर्वाधिक प्रभावी है ।
स्वार्थ और क्रूरता
आर्थिक साम्राज्य कायम करने की एक होड़-सी लगी हुई है। अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, जर्मनी, ये सभी देश एक दूसरे को इस दौड़ में पीछे छोड़ देना चाहते हैं । इस आर्थिक साम्राज्यबाद के विस्तार में टेक्नोलोजी का भरपूर प्रयोग हुआ है किन्तु मानव कल्याण के लिए कम हुआ है। औद्योगिक विकास की भी यही स्थिति है । तर्क तो यह दिया जाता है—- औद्योगिक विकास जितना होगा, विकास के उतने ही अवसर बढ़ेंगे, रोजगार बढ़ेंगे। करुणा की बात उसके बाद आती है। जहां स्वार्थ प्रबल होता है, वहां करुणा प्रबल नहीं हो सकती । महावीर का यह निश्चित सिद्धान्त
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