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________________ विकास की अर्थशास्त्रीय अवधारणा घटं भिन्द्यात् पटं छिन्द्यात्, कृत्वा रासभरोहणम् । _ येन केन प्रकारेण प्रसिद्ध : पुरुषो भवेत् ॥ दो सूत्र हैं—एक येन-केन प्रकारेण का और दूसरा साधन-शुद्धि का । भगवान् महावीर ने कहा-समाज के क्षेत्र में आर्थिक विकास में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती किन्तु यह येन-केन प्रकारेण नहीं होना चाहिए, उसमें अहिंसा की दृष्टि से विचार होना चाहिए, साधन-शुद्धि से विचार होना चाहिए। मूल्यों का ह्रास न हो . महावीर ने कहा-अर्थार्जन में मूल्यों का ह्रास न हो । महावीर की अवधारण और आधुनिक अर्थशास्त्र की अवधारणा में इस दृष्टि से हम बहुत अन्तर देखते हैं आर्थिक विकास में मूल्यों का ह्रास न हो, यह अनिवार्य शर्त रही । आज ाि दूसरी हो गई है। केनिज ने स्पष्ट कह दिया—'अभी यह समय नहीं आया है कि हम मूल्यों पर विचार करें या नैतिकता पर विचार करें। जब सभी धनवान् बन जाएं तब इस पर विचार करने की जरूरत पड़ेगी।' यह बहुत बड़ा अन्तर है, महावीर व अर्थशास्त्रीय अवधारणा और आज की अर्थशास्त्रीय अवधारणा में। करुणा व विकास, संवेदनशीलता का विकास, आर्थिक विकास के साथ-साथ होना चाहिए कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा है कि समृद्ध बनने के साथ-साथ उसी अनुपात में हमार करुणा, दया का स्रोत सूखता जा रहा है। एक व्यक्ति ने क्रूरता के साथ धन बटोरा उससे आर्थिक विकास तो हो सकता है किन्तु उसका यह विकास हजारों व्यक्तिये के लिए एक गड्ढा खोद देता है। स्वार्थ की सीमा स्वार्थवृत्ति से सर्वथा अछूता नहीं रहा जा सकता। साधना करने वाले व्यत्ति में भी अपना स्वार्थ होता है । वह सर्वथा बुरा और अवांछनीय भी नहीं होता, अच्छ भी होता है किन्तु उसकी एक सीमा होनी चाहिए। ऐसा स्वार्थ न हो कि वह दूसरे के हित को हानि पहुंचाए । व्यक्ति अकेला नहीं हैं, दुनिया बहुत बड़ी है। अरब आदमी हैं। एक व्यक्ति अपने स्वार्थ को इतना उभारे कि अपना तो आर्थिक विकास करे और दूसरों को हानि पहुंचाए। यह नहीं होना चाहिए। ___ महावीर ने कहा--आर्थिक विकास के साथ इन बिन्दुओं पर विचार करो। महावीर का श्रावक आनन्द आर्थिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न था। उसके पास हजारों-हजारों एकड़ कृषि भूमि थी। चालीस हजार गायों की गौशाला थी। करोड़ों की संपदा व्यापार में लगी हुई थी किन्तु व्रती समाज का सदस्य होने के नाते उसका यह व्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003067
Book TitleMahavira ka Arthashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2007
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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