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विकास की अर्थशास्त्रीय अवधारणा जगह लकड़ियां बांध दी । पंडित सोकर उठा। वह कपड़े में बंधी लकड़ियों को लेकर राजा के महल की ओर चल पड़ा। दरबार में पहुंचकर भेंट करने की इच्छा से जब कपड़े को खोला तो उसमें लकड़ियां देखकर स्तब्ध रह गया। वह बहत चिंतित हो गया । महाकवि कालिदास समझ गए—इस व्यक्ति के साथ किसी ने छल किया है। उन्होंने तुरन्त स्थिति को संभालने हुए कहा—'महाराज ! आज जैसा उपहार
आया है, वैसा कभी किसी ने भेंट नहीं किया। बड़ा अद्भभूत उपहार है।' राजा ने पछा-कैसे? कालिदास ने कहा
दग्धं खाण्डव मर्जुनेन बलिना रम्यद्रुमैर्भूषितं, दग्धा वायसतेन हेमनगरी लंका पुन: स्वर्णभः । दग्धो लोकसुखो हरेण मदन: किं तेन युक्तं कृतं,
दारिद्रयं जग तापकारकमिदं केनापि दग्धं न हि ।। खाण्डव वन को अर्जुन ने जला दिया, सोने की लंका को हनुमान ने जला दिया और कामदेव को शंकर ने जला दिया, लेकिन इस दरिद्रता को, जो सबको जलाती है, कोई जला नहीं सका। यह विप्र इस दरिद्रता को जलाने के लिए ईंधन भेंट कर रहा है। इसे जलाने में आप ही समर्थ हैं।
दरिद्रता कभी प्रिय नहीं रही, गरीबी कभी वांछनीय नहीं रही, न प्राचीनकाल में, न अर्वाचीनकाल में। सब चाहते हैं कि गरीब कोई न रहे, समाज किसी को न सताए । किन्तु यह बड़ा कठिन काम है। अर्थशास्त्र का ध्येय ___ आधुनिक अर्थशास्त्र ने इस तथ्य का प्रतिपादन किया-मनुष्य के स्वार्थ के मनोवेग को उभारा जाए। आज के अर्थशास्त्र का ध्येय रहा है--जहां तक हो सके, स्वार्थवृत्ति को उभारा जाए। जितना स्वार्थ उभरेगा, उतना ही विकास होगा। केनिज ने बड़ी दृढ़ता के साथ इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त में सचाई नहीं है, ऐसा मैं नहीं मानता। क्योंकि व्यक्तिगत प्रेरणा और व्यक्तिगत स्वार्थ जितना मनुष्य से काम करवाता है, उतना कोई नहीं करवाता । स्वार्थ हमारी एक बहुत बड़ी प्रेरणा है और बहुत प्रिय है। जिस सिद्धान्त का आधुनिक अर्थशास्त्र ने प्रतिपादन किया, वह प्रिय है, आकर्षक है हर व्यक्ति अपने स्वार्थ को बढ़ाए और व्यक्तिगत स्वामित्व जितना विकसित कर सके, करे। जितना अर्जन कर सके, करे।
साम्यवाद ने जो सिद्धान्त प्रस्तुत किए, वे भी कम आकर्षक नहीं हैं। कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं रहेगा, बिना मकान के नहीं रहेगा, वस्त्रहीन नहीं रहेगा, आजीविका
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