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विकास की अर्थशास्त्रीय अवधारणा
भगवान् महावीर ने प्रत्येक कार्य, विकास या पर्याय को सापेक्ष बतलाया । बहुत शाखाएं हैं, बहुत शास्त्र हैं। अनेक विद्या की शाखाओं में परस्पर संबद्धता है । जितने भी शास्त्र हैं, उनमें भी परस्पर सापेक्षता है । यद्यपि अर्थशास्त्र अर्थ के विषय में ही चिन्तन करता है किन्त कोई भी शास्त्र निरपेक्ष होकर चल नहीं सकता। ऐसा प्रतीत होता है—आधुनिक अर्थशास्त्र ने निरपेक्ष होकर चलने का प्रयत्न किया है। शायद इसी का परिणाम है कि अनेक समस्याएं सुलझने के स्थान पर उलझी हैं, हिंसा को प्रोत्साहन मिला है।
केनिज ने अर्थशास्त्र का मुख्य उद्देश्य बतलाया-हर निर्धन व्यक्ति धनी बने, मालामाल बन जाए । उद्देश्य आकर्षक है। इस विषय में साम्यवाद और पूंजीवाद में कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं देता। प्रक्रिया और परिणाम में अन्तर हो सकता है, किन्तु मूल उद्देश्य यही है कि कोई भी व्यक्ति निर्धन न रहे, गरीब न रहे, गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन न करे । प्रत्येक व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके और वह सुख शान्ति के साथ अपना जीवन जी सके- यह विकास का एक लक्ष्य बनाया गया । अर्थशास्त्रीय दृष्टि से विकास की परिभाषा भी यही है। आर्थिक विकास, प्रौद्योगिकी का विकास, टेक्नोलोजी का विकास, प्रति व्यक्ति आय और जीवनस्तर—ये आधुनिक अर्थशास्त्र के विकास में मानदण्ड हैं। प्रिय नहीं है दरिद्रता
प्राचीन काल में भी कहा गया-अधनं निर्बलं जो अधन है, वह निर्बल है। दरिद्र और गरीब कभी वांछनीय नहीं रहा । दरिद्रता सदा तिरस्कृत हुई है। उसे किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं माना गया।
एक ब्राह्मण पण्डित ने राजा भोज से मिलने के लिए प्रस्थान किया। वह बहुत दरिद्र था। राजा को भेंट करने के लिए कपड़े में गन्ने के कुछ खण्ड (टुकड़े) बांधकर ले लिए। कुछ देर विश्राम करने के लिए वह जंगल में सो गया। उधर से आर रहे एक व्यक्ति ने उसे देखा। उसने सोचा-राजा के पास यह पुरस्कार के लिए इक्षुखण्ड लेकर जा रहा है। उसने कपड़े से इक्षुखंड निकाल लिए और उसकी
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