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________________ केन्द्र में कौन - मानव या अर्थ ? केवल ये ही नहीं हैं। मनुष्य की प्रकृति के चार तत्त्व हैं। उनमें केवल काम ही सब कुछ नहीं है । काम की पूर्ति के लिए अर्थ चाहिए, किन्तु वह भी सब कुछ नहीं है। काम है साध्य और अर्थ है उसकी पर्ति का साधन । प्रकृति के ये दो अंग बन जाते हैं—काम और अर्थ, एक साध्य और दूसरा साधन । मनुष्य इतना ही नहीं है । यदि मनुष्य का व्यक्तित्व केवल काम और अर्थ की सीमा में ही होता तो नैतिकता, चरित्र आदि पर विचार करने की आवश्यकता ही नहीं होती। फिर भ्रष्टाचार, बेईमानी और अनैतिकता से ग्लानि करने की, परहेज करने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती। केनिज ने मनुष्य की आधी प्रकृति के आधार पर अपनी अर्थशास्त्रीय घोषणा कर दी, आधी प्रकृति को अस्वीकार कर दिया। रोटी और आस्था प्रसिद्ध इतिहासकार टायनबी ने एक बहुत अच्छी बात कही है—कोरी रोटी और कोरी आस्था--दोनों अपर्याप्त हैं। मनुष्य केवल रोटी के आधार पर जी नहीं सकता और केवल आस्था के सहारे भी जी नहीं सकता। आज की प्रणाली तो यह है कि रोटी दो तो आस्था को खण्डित कर दो। आस्था दो तो रोटी की समस्या रह जाती है। ऐसी प्रणाली की आवश्यकता है, जिसमें रोटी भी हो और आस्था भी हो। यह समन्वित प्रणाली है। महावीर ने जो मार्ग-दर्शन दिया, जो अर्थशास्त्र का दर्शन दिया, उसमें न रोटी का अस्वीकार है और न आस्था का अस्वीकार है । दोनों का समन्वय है, रोटी भी मिले और आस्था भी। __महावीर ने कहा—मनुष्य की जो आधी प्रकृति है, उसे ठीक समझने का प्रयत्न करो । वह है धर्म संवेग या मुमुक्षा, (मुक्त होने की इच्छा)। उसको बिल्कुल उपेक्षित ____मत करो । जानबूझकर उसके साथ आंखमिचौनी मत करो, चरित्र को भी स्थान दो। जब चरित्र की मीमांसा करते हैं और मुक्त होने की बात सामने होती है, तब एक शब्द फलित होता है संयम । सुविधा की सीमा करो, उसे असीम मत बनाओ। मकान और वस्त्र शरीर के लिए आवश्यक हैं, पर सुविधा को इतना मत बढ़ाओ कि वह स्वयं के लिए हानिकारक बन जाए । सुविधा की सीमा का सूत्र महावीर की भाषा में सुविधा की सीमा का विवेक यह है-जो सुविधा शारीरिक, मानसिक और भावात्मक स्वास्थ्य को हानि न पहुंचाए, वह सुविधा मान्य है, किन्तु जो सुविधा शारीरिक, मानसिक और भावात्मक स्वास्थ्य को हानि पहुंचाए, वह सुविधा अवांछनीय । फ्रिज एक सुविधा है, किन्तु शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003067
Book TitleMahavira ka Arthashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2007
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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