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केन्द्र में कौन- मानव या अर्थ ?
ज़ाएगा । जहां अनियंत्रित इच्छा है, वहां मनुष्य निश्चित रूप से परिधि में चला जाएगा और अर्थ केन्द्र में आ जाएगा ।
असीम आवश्यकता
आवश्यकता के लिए भी यही सूत्र काम करता है । अर्थशास्त्र का सूत्र 1 है— आवश्यकता को असीम विस्तार दो, कहीं रोको मत । इससे भी मनुष्य किनारे पर लग जाता है और अर्थ केन्द्र में आ जाता है ।
सुविधा का अतिरेक
हम सुविधा को अस्वीकार नहीं कर सकते। महावीर ने भी इसे सर्वथा अस्वीकार नहीं किया। इसलिए कि मनुष्य के भीतर कामना है। कामना है तो फिर सुविधा उसके लिए अनिवार्य बन जाती है। कामना और सुविधा- इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। यदि मनुष्य की प्रकृति में काम नहीं होता तो हम सुविधा को अस्वीकार कर देते । यथार्थवादी दृष्टिकोण यही है- जहां कामना है, वहां सुविधा अनिवार्य होगी । महावीर ने भी इस यथार्थ को स्वीकार किया— सुविधा की अपेक्षा है, किन्तु जहां सुविधा का अतिरेक हो जाता है, वहां मनुष्य गौण बन जाता है और अर्थ प्रधान बन जाता है 1
विलासिता
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विलासिता में मनुष्य का कहीं पता ही नहीं होता । मनुष्य परिधि से भी बाहर चला जाता है । केवल अर्थ... अर्थ... और... अर्थ बचता है । विलासिता न हमारी आवश्यकता है, न अनिवार्यता । न सुविधा है, न कोरा मनोरंजन । वह केवल भोगवृति का उच्छृंखल रूप है। समझदार मनुष्य उसमें किसी भी सार्थक तत्त्व को नहीं देख पाता। वहां केवल अर्थ की लोलुपता और उसकी पूर्ति के साधन के सिवा और कुछ नहीं बचता । विलासिता केवल भोग का पोषण है । इसमें काम और अहं- दोनों वृत्तियां काम करती हैं 1
महावीर का सूत्र
इन सूत्रों के आधार पर अर्थनीति का निर्धारण होता है और आदमी अर्थार्जन की वृत्ति में संलग्न होता है। प्रश्न है- महावीर ने इस विषय में क्या नया सूत्र दिया ? क्या इच्छा को अस्वीकार किया ? महावीर ने इच्छा को अस्वीकार नहीं किया। उन्होंने स्वयं कहा – इच्छा हु आगाससमा अणतया - इच्छा आकाश के समान अनन्त है। क्या आवश्यकता को रोकने की बात कही ? उन्होंने यह भी नहीं
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