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________________ ८१ हिंसा की जड़ भीतर हैं हिंसा और अहिंसा। हमारी जो मस्तिष्कीय प्रणाली है, उसमें दो प्रणालियां हैं । एक प्रणाली है कि गुस्सा करो, क्रोध करो, क्योंकि स्थिति से निपटना है। दूसरी प्रणाली यह भी है कि अभी मत करो, थोड़ा रुको । हमें रोकती भी है । क्रोध आने की प्रणाली हमारे मास्तष्क में है तो क्रोध पर नियंत्रण पाने की प्रणाली भी हमारे मस्तिष्क में है । एक प्रणाली कहती है, लड़ो, झगड़ो, गुस्सा करो तो दूसरी कहती है कि अभी मत करो, जरा रुको, देखो, कुछ ठहरो। एक उकसाती है तो दूसरी रोकती है। दोनों प्रणालियां हमारे भीतर विद्यमान हैं। युद्ध और शांति, हिंसा और अहिंसादोनों हमारे भीतर विद्यमान हैं। केवल हिंसा की जड़ ही हमारे भीतर विद्यमान नहीं है, अहिंसा की जड़ भी हमारे भीतर है । स्वर्ग और नरक दोनों -हमारे भीतर हैं। स्वर्ग : नरक चीन का एक दार्शनिक था नानूसीजी। उनके पास एक सेनापति आया। बहुत नाम सुना था दार्शनिक का । प्रसिद्ध संत था । आकर बोला, मेरे प्रश्न का उत्तर दें? क्या प्रश्न है तुम्हारा? उसने कहा, स्वर्ग क्या है और नरक क्या है ? सेनापति था, योद्धा था । योद्धा की बोली अलग प्रकार की होती है और भावना भी अलग प्रकार की होती है। बड़ी तेज भाषा में कहा, जल्दी मेरे प्रश्न का उत्तर दें। संत ने सोचा-बड़ा अजीब आदमी है। आया है जिज्ञासा को लेकर और बोल रहा है लड़ने के मूड में । बड़ा विचित्र आदमी है । संत भी बड़े विचित्र थे। नानूसीजी ने कहा, क्या तुम सेनापति हो। उसने कहा, तुम्हें दीख नहीं रहा है ? संत ने कहा, दीख रहा है। तुम सेनापति हो, पर तुम्हारी सूरत तो है भिखारी जैसी। इतना सुनते ही उबल पड़ा सेनापति । वह बोला-दीखता नहीं, तलवार है मेरे हाथ में । संत बोलेअच्छा, तलवार भी रखते हो ? पर इसके धार है या नहीं है ? उसने तलवार म्यान से बाहर निकाली । संत बोले, धार तो है । क्या तुम मेरा सिर काट सकते हो ? वह और अधिक गुस्से में उबल पड़ा । इतना उबल पड़ा कि आपा खो बैठा । संत बोले, सेनापति ! तुम जानना चाहते थे कि स्वर्ग क्या है और नरक क्या है ? यह है नरक । यह है तुम्हारे एक प्रश्न का उत्तर। इतना सुनते ही सेनापति शांत हो गया। सारा गुस्सा समाप्त हो गया। वह झुका और संत के पैरों में गिर पड़ा। संत ने उसे उठाते हुए कहा-सेनापति ! यह है स्वर्ग । यह है तुम्हारे दूसरे प्रश्न का उत्तर। यह स्वर्ग और नरक कहीं बाहर नहीं है, हमारे भीतर ध्यान : अहिंसा को जगाने का प्रयोग हिंसा और अहिंसा-दोनों मनुष्य के भीतर हैं । हिंसा की जड़ भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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