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अहिंसा : व्यक्ति और समाज हमारे भीतर विद्यमान है और अहिंसा की जड़ भी हमारे भीतर विद्यमान है। किसको पकड़ना है और किसे विकसित करना है, यह सोचना है। इस स्थिति में वातावरण पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। यह एक बिन्दु है जहां परिवेश का मूल्यांकन करना है, वातावरण का मूल्यांकन करना है । शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष-दोनों हमारे भीतर विद्यमान हैं। प्रकाश और अन्धकारदोनों हमारे भीतर विद्यमान हैं। दोनों का अस्तित्व है, पर किसको जगाना है और किसको सुलाना है । प्रश्न है जगाने और सुलाने का।
ध्यान का प्रयोग इसलिए है कि हम अहिंसा को जगा सकें और हिंसा को सुला सकें। एक को जगाना और एक को सुलाना । ध्यान का अर्थ है जागरूकता, जगाना। हर आदमी जागरूक है। कौन आदमी जागरूक नहीं है ? यदि पैसा कमाने का प्रश्न है तो आधी रात में भी आदमी जागरूक है। नींद में भी यदि कोई संवाद दे दे कि पांच लाख रुपयों का मुनाफा हो रहा है तो बिलकुल जागरूक है । नींद में भी सुन लेता है। अगर स्वप्न आए तो भी जागरूक है। हिंसा का मूल-सूत्र
हमें जिस जागरूकता का विकास करना है, वह है अपने प्रति जागरूक होना । पदार्थ के प्रति हम बहुत जागरूक हैं, पर अपने प्रति जागरूक नहीं हैं। ध्यान का प्रयोजन है अपने प्रति जागरूक होना। आदमी अपने प्रति सोया रहता है, दूसरे के प्रति जागता है। इसको थोड़ा बदल देना है । यदि पदार्थ के प्रति जागरूक हो तो थोड़े अपने प्रति भी जागरूक बनो। यह है जागरूकता का विकास । अपने प्रति जब जागरूकता का विकास होता है तो अहिंसा का विकास होता है। अपने प्रति जागने का अर्थ है अहिंसा और अपने प्रति सोने का अर्थ है हिंसा । इसे हम उलट कर कह दें कि पदार्थ के प्रति जागने का अर्थ है हिंसा और पदार्थ के प्रति सोने का अर्थ है अहिंसा । अहिंसा की कोई लम्बी-चौड़ी परिभाषा नहीं है । जब आदमी अपने प्रति जागता है तब ममत्व का धागा टूटता है, अहिंसा का विकास होता है। जब आदमी अपने प्रति सोने लगता है तब ममत्व का धागा फैलता है, हिंसा बढ़ जाती है। हिंसा का बहुत बड़ा सूत्र है-ममत्व। वातावरण सुधारें
हमने चार प्रमुख वादों का विश्लेषण किया-जीनवाद, मौलिकवृत्तिवाद, परिवेशवाद और कर्मवाद । इन चारों के समन्वय और समवाय के बाद जो निष्कर्ष हमारे सामने आया वह यह है कि हमें सबसे पहले ध्यान परिवेश पर ही देना है, क्योंकि वह सबसे पहले हमारे सामने आता है। जो सबसे पहले हमारे सामने आता है उस पर पहले ध्यान देना होता है। हम
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