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________________ अहिंसा : व्यक्ति और समाज कोई आवश्यकता नहीं है । साधना की कोई आवश्यकता नहीं है। माना जाता है कि जो जीनगत है, आनुवंशिक है, उसे बदला नहीं जाता। हिंसा हमारे जीन में है, उसे बदला नहीं जा सकता। फिर क्या जरूरत है ध्यान करने की ? क्या जरूरत है तपस्या करने की ? क्या जरूरत है शांति के प्रयत्नों की ? कोई जरूरत नहीं है। अगर ऐसा मान लें तो फिर हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहना है और यही सोचना है कि ऐसा होना है और हमें ऐसे भोगना है । हमारे पास इसका कोई उपचार नहीं है।। यदि हिंसा की जड़ मौलिक मनोवृत्ति है तो भी यही कठिनाई है। मनोवृत्ति को बदलना मनोविज्ञान के क्षेत्र में असंभव जैसा है। जैसे जीन पर हमारा कोई वश नहीं है, मौलिक मनोवृत्ति पर भी हमारा कोई वश नहीं है । अगर हम मौलिक मनोवृत्ति को जड़ मान लें तो कोई प्रयत्न करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ अपने भाग्य को कोसते रहें और नियति की ओर झांकते रहें। अगर मात्र परिवेश ही हिंसा का कारण है तो बहुत बार ऐसा होता है कि परिवेश बदल देने पर भी आदमी की वृत्ति बदलती नहीं है । हिंसा की बात बदलती नहीं है । यदि हिंसा का कर्म से संबंध है तो वहां भी यह समस्या आ सकती है कि हम ऐसा क्यों करें ? कर्म तो बदला नहीं जा सकता । यह माना जाता है कि जैसा भाग्य में लिखा है, आदमी को भोगना है । जैसा कर्म किया है आदमी को भोगना है, किए हुए कर्म को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। समस्या है और निराशावाद है । हम निराश होकर बैठ जाएं, कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। आशा की एक किरण __ कर्मवाद का एक सिद्धांत है कि कर्म भुगतना पड़ता है, पर साथ ही साथ यह भी सिद्धांत है कि कर्म को बदला भी जा सकता है । यही आशा की एक किरण हमारे सामने आयी है । जरूरी नहीं है कि जो किया है उसे वैसा ही भुगतना पड़ेगा । उसे बदला जा सकता है, यह एक दार्शनिक सिद्धांत है । इसके संदर्भ में क्या हम लौटकर नहीं देख सकते ? जीन को भी बदला जा सकता है । मौलिक मनोवृत्ति को भी बदला जा सकता है। परिवेश को भी बदला जा सकता है । यह परिवर्तन की बात हमारे सामने आती है । परिवर्तन का सूत्र हमारे हाथ लगता है तो एक नई आशा फिर जाग जाती है कि हम बदल सकते हैं और हिंसा को बदला जा सकता है। परिवर्तन का सूत्र : अहिंसा का विकास बदलने का सूत्र है-अहिंसा का विकास । हमारे भीतर हिंसा और अहिंसा-दोनों तत्त्व विद्यमान हैं। कोरी हिंसा की जड़ ही हमारे भीतर विद्यमान नहीं है । अहिंसा की जड़ भी हमारे भीतर विद्यमान है। दोनों हमारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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