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हिंसा और अहिंसा
व्यवहार में प्राणी को मारना-सताना हिंसा है और तत्त्व दृष्टि से रागद्वेषयुक्त प्रवृत्ति से किया जाने वाला प्राण-वध हिंसा है। आत्मा की शुद्ध या स्वाभाविक स्थिति अहिंसा है ।
अहिंसा के वर्गीकृत रूप दो हैं— निषेधक और विधायक । पूर्वी और पश्चिमी धर्म-प्रवर्तकों और विचारकों के विचारों में इस रूप को लेकर द्वैत नहीं दीखता । उनमें प्रायः पूर्ण सामंजस्य है ।
अहिंसा प्रत्येक स्थिति में उपादेय है । हिंसा जीवन की कमजोरी है । वह किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं ।
मुनि के लिए हिंसा सर्वथा - मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत, कारित, अनुमति से त्याज्य है । गृहस्थ अर्थ - हिंसा – अनिवार्य या प्रायोजनिक हिंसा से न बच सके तो अनर्थ - हिंसा - जो जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक नहीं है, से अवश्य बचे ।
हिंसा से नहीं बच सकना और अहिंसा एक नहीं है । 'अनिवार्य हिंसा करनी चाहिए' और 'अनिवार्य हिंसा हुए बिना नहीं रहती - ये दो बातें हैं। हिंसा -हिंसा है । उसमें देश, काल और परिस्थिति का अपवाद नहीं हो
सकता ।
अभाव जितना सरल होता है, भाव उतना ही जटिल | नकार की भाषा में जो एकता दीखती है, वह हकार की भाषा में नहीं दीखती । भावात्मक अहिंसा इस नियम का अपवाद नहीं ।
जैन - अहिंसा को साधारणतया निवृत्त्यात्मक माना जाता है । इसका कारण यही है कि उसमें संयमहीन करुणा यानी राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति को आत्मसाधना की दृष्टि से स्थान नहीं है ।
अहिंसा की परिधि में वही सेवा आ सकती है, जो आत्म-साधना से अनुप्राणित है ।
शारीरिक सेवा और आध्यात्मिक सेवा के बीच एक भेद-रेखा न हो तो फिर मोह और माध्यस्थ्य, भौतिक तुष्टि और आत्मिक शान्ति में कोई अन्तर नहीं हो सकता ।
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