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शांति और अहिंसा - उपक्रम
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हो सकता । पर इनका संतुलन न होने से अनेक प्रकार की समस्याएं पैदा हो जाती हैं | संवेगों को संतुलित करने की प्रक्रिया को यहां उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है
क्रोध एक संवेग है । इसे नियंत्रित करने के लिए इमोशनल एरियाभाव क्षेत्र पर ध्यान के प्रयोग करवाए जाते हैं । चैतन्य - केन्द्र प्रेक्षा और लेश्या - ध्यान के प्रयोग इसके लिए कार्यकारी प्रमाणित हुए हैं ।
प्रमाद एक संवेग है । यह जागरूकता घटाता है। इसको नियंत्रित करने के लिए चैतन्य - केन्द्र प्रेक्षा, लेश्याध्यान और दीर्घ श्वास प्रेक्षा के प्रयोग निर्धारित हैं । नशा मुक्ति के लिए भी इन प्रयोगों को काम में लिया जाता है ।
हीन भावना और अहं भावना ऐसे संवेग हैं, जो मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं । इनके प्रभाव को क्षीण करने के लिए अनुकंपी और परानुकंपी – Sympathetic & parasympathetic नाड़ी तंत्र पर ध्यान के विशेष प्रयोग करवाए जाते हैं ।
बाह्यजगत् में प्रशिक्षण के तीन बिन्दु
बाह्यजगत् में अहिंसा के प्रायोगिक प्रशिक्षण की भूमिका बहुत विस्तृत है । मुख्य रूप में उसके तीन बिन्दु हो सकते हैं:
• मानवीय संबंधों का परिष्कार या विकास ।
• प्राणी जगत् के साथ संबंधों का विस्तार ।
• पदार्थ जगत के साथ संबंधों की सीमाएं ।
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मनुष्य सामाजिक प्राणी है । वह समूह में रहता है । वहां वह अनेक प्रकार के संबंध जोड़ता है। संबंध जोड़ना कोई कठिन काम नहीं है । कठिन है उनका समुचित निर्वाह । कठिनाई का कारण है मनुष्य की स्वार्थपरायण मनोवृत्ति | स्वार्थ की आंख से देखने वाला और स्वार्थ की धरती पर चलने वाला परमार्थ की बात कैसे सोच सकता है अहिंसा परमार्थ का दर्शन है । अहिंसा में विश्वास करने वाला व्यक्ति संबंधों की आंच पर स्वार्थ की रोटी नहीं रोक सकता | स्वार्थवाद या व्यक्तिवाद के कारण सम्बन्धों के संसार में जो जहर घुल रहा है, उससे बचने के लिए अहिंसा का प्रशिक्षण अत्यन्त आवश्यक है ।
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मानवीय संबंधों का परिष्कार
मनुष्य के दृष्टिकोण को दो रूपों में देखा जाता है - मानवीय और अमानवीय । एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति कैसा संबंध या व्यवहार होना चाहिए, नीतिसूत्रों में यह बात निर्धारित होती है । उसके अनुसार व्यवहार करने वाले व्यक्ति का दृष्टिकोण मानवीय कहलाता है । जो व्यक्ति दूसरे के हितों की उपेक्षा करता हो, उन्हें कुचल देता हो, किसी का शोषण करता हो
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