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________________ अहिंसा : व्यक्ति और समाज या सताता हो, यह पाशवी या दानवी वृत्ति कहलाती है । इस वृत्ति को बदलने से ही मानवीय संबंधों का परिष्कार हो सकता है। __ मानवीय संबंधों को कई ईकाईयों में विभक्त किया जा सकता है। हम यहां मुख्य रूप से तीन ईकाइयों की चर्चा कर रहे हैं-पारिवारिक संबंध, सामाजिक संबंध और व्यावसायिक संबंध । पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, सास-बहु, देवरानी-जेठानी, मां-बेटी आदि पारिवारिक संबंध हैं। इनमें मानवीय दृष्टिकोण का विकास हो तो किसी को मारने,पीटने, सताने या प्रताड़ित करने का प्रसंग उपस्थित नहीं हो सकता। सामाजिक संबंधों का दायरा बहुत विस्तृत होता है । पड़ोसी से लेकर दूर-दराज बसने वाले समाज के हर व्यक्ति के साथ किसी न किसी रूप में संबंध रहता है । संबंधों की स्थापना में स्वार्थ की प्रेरणा न हो और स्वार्थ में बाधा पहुंचने पर संबंध तोड़ने की परिस्थिति भी पैदा न हो, यह अहिंसा की प्रेरणा है । जाति, रंग, लिंग वर्गभेद आदि को आधार बनाकर मनुष्य-मनुष्य के बीच जो दूरियां बढ़ती जा रही हैं वे किसी न किसी रूप में हिंसा को बढ़ावा दे रही है। इन सब भेदों से ऊपर एक तत्त्व है, वह है मनुष्यता । यह भी मनुष्य है, मैं भी मनुष्य हूं। मैं इससे जिस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा रखता हूं, इसको भी मुझसे वैसी ही अपेक्षा है । चिन्तन के इस धरातल पर ही मानवीय संबंधों का विकास संभव हैं। मालिक-कर्मचारी, व्यापारी-मुनीम, स्वामी-सेवक, भागीदार-भागीदार आदि संबंध व्यवसाय जगत से जुड़े हुए हैं । इन संबंधों में मानवीय दृष्टिकोण न हो तो मालिक शोषण करता है और श्रमिक श्रम से जी चुराता है। चार डिग्री बुखार में काम करने की बाध्यता और बहानेबाजी की आदत इसी परिवेश में पलती है। इस क्षेत्र में सहानुभूति और संविभाग के प्रशिक्षण से अनेक प्रकार की समस्याओं से राहत मिल सकती है। प्राणी-जगत् के साथ संबंधों का परिष्कार मनुष्य अपने आपको संसार का सबसे श्रेष्ठ प्राणी समझता है । इसी कारण अन्य प्राणियों के प्रति उसका दृष्टिकोण बहुत उदार नहीं होता । वह अपने जीवन के लिए प्राणियों की हिंसा करता है । हिंसा के दो रूप हैंअपरिहार्य और परिहार्य । उसके द्वारा की जा रही अपरिहार्य हिंसा भी हिंसा ही है । उसे अपरिहार्यता की दृष्टि से एक ओर किया जा सकता है । किन्तु अपरिहार्य या अनावश्यक हिंसा प्राणी जगत् के प्रति उसके अमानवीय दृष्टिकोण का परिणाम है। प्राणी जगत् के साथ मनुष्य के संबंध कैसे होने चाहिए-इस संदर्भ में मनुष्य को प्रशिक्षण दिया जाता तो परिहार्य या अनावश्यक हिंसा नहीं होती, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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