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________________ अहिंसा : व्यक्ति और समाज आ जाये तो वहुत सारी भ्रांतियां और कठिनाइयां अपने-आप समाप्त हो जाएं। अहिंसा का प्रारम्भ चित्त की शुद्धि से होता है । वह जीवन का संयम है। उसकी पृष्ठभूमि है-चित्त की निर्मलता । जिसका चित्त कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) से कलुषित होता है, उसके जीवन में अहिंसा का विकास नहीं हो पाता । जिसका अपने मन पर नियंत्रण नहीं होता और जो अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाता, उसके जीवन में अहिंसा कैसे आ सकती है ? यदि ऐसा व्यक्ति अपने-आपको अहिंसक मानता है तो वह अहिंसा के साथ मखौल ही है। घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, वासना और दुराग्रह-ये सब जीवन में पलते रहें और अहिंसा भी सधती रहे, शायद ऐसा मान लिया गया है किन्तु ऐसा सम्भव नहीं है। कुछ लोग जीव न मारने तक ही अहिंसा को सीमित कर देते हैं। जीवों को न मारना निश्चित ही अहिंसा है किन्तु अहिंसा उतनी ही नहीं है। वह उससे भी बहुत आगे है। जो लोग अहिंसा को सीमित अर्थ में देखते हैं, उन्हें किसी चींटी के मर जाने पर पछतावा होता है किन्तु दूसरों पर झूठा मामला चलाने में पछतावा नहीं होता है । बहुत बड़े अप्रामाणिक साधनों से पैसा कमाने में उन्हें हिंसा का अनुभव नहीं होता। अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरों का बड़े-से-बड़े अहित करने में उन्हें हिंसा का अनुभव नहीं होता। यह कैसी अहिंसा है ? ऐसा लगता है कि अहिंसा की परिभाषा अपने स्वार्थ के सन्दर्भ में कर ली गयी है। जहां स्वार्थ का प्रश्न है वहां मनुष्य को हिंसा करने में संकोच नहीं होता और जहां अपने स्वार्थ में कोई बाधा नहीं पहुंचती वहां अहिंसा का अभिनय किया जाता है। यह अहिंसा के प्रति न्याय नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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