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अहिंसा और वीरत्व
नाम पर स्थान-स्थान पर मल्ल-युद्ध और अखाड़ेबाजी होने लगी। सारा देश छोटी-छोटी इकाइयों में बंट गया और वे छोटी-छोटी इकाइयां भी सम्प्रदाय, जाति और वर्ण के अनेक टुकड़ों में विभक्त हो गयीं। दिन-प्रतिदिन क्रियाकाण्डों का जोर भी बढ़ता गया। ये सब ऐसे कारण थे, जिन्होंने भारत के बाहर से भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले और भीतर से भी उसे अशक्त और निर्बल बना दिया।
अहिंसा-निष्ठा के कारण भारत गुलाम रहा, यह बात भी समझ में आ जाती, यदि भारतीय लोग युद्ध-विमुख हो जाते । जबकि स्थिति यह है कि पिछले हजार वर्षों में भारत-भूमि पर छोटे-छोटे सैकड़ों युद्ध लड़े गए हैं। छोटी-छोटी रियासतों की सीमाएं प्रायः अशान्त रही हैं। जब यहां बराबर युद्ध होते रहे हैं, यहां की नस-नस में हिंसा का प्रवाह रहा है, फिर अहिंसानिष्ठा कैसी?
संक्षेप में, मेरे विचारों में अहिंसा वीरों का आभूषण है । अहिंसा स्वतंत्रता का प्राण है । गुलामी स्वयं हिंसा है भगवान महावीर ने जैसे प्राणवध को हिंसा माना है, दास-प्रथा को भी हिंसा माना है । गुलामी और अहिंसा का आपस में कोई ताल-मेल नहीं है । इस प्रकार अपनी ही कायरता, रणनीति की अकुशलता, क्रियाकाण्डों का बाहुल्य और आपसी कलह और फूट के कारण शताब्दियों तक पलने वाली भारत की गुलामी को अहिंसा के साथ नत्थी नहीं किया जा सकता। अहिंसात्मक प्रतिरोध
__ मेरे विचार से इन स्थितियों में अहिंसा की आवाज का मूल्य और अधिक बढ़ जाता है। पानी का सदा महत्त्व रहता है, लेकिन अकाल के समय उसका मूल्य अधिक बढ़ जाता है। युद्ध के समय शांति का मूल्य और अधिक बढ़ जाता है । हिंसा के समय अहिंसा का मूल्य-स्थापन स्वयं प्रकृति है।
प्रश्न अब अहिंसा के मूल्य का ही नहीं, उसकी प्रतिष्ठा का है । मैं मानता हूं, यह अहिंसा का परीक्षा-काल है, अहिंसा के प्रयोग का काल है । इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाते हुए अहिंसा यदि इन समस्याओं का समाधान देती है तो उसका तेजस्वी रूप स्वयं प्रतिष्ठित हो जाएगा अन्यथा वह बेकार रह जाएगी।
देश की आजादी के संदर्भ में गांधीजी ने अहिंसा को केन्द्र में प्रतिष्ठित किया था। परिणामतः बिना किसी खून-खराबे के भारत को आजादी मिली। इसके साथ ही लोगों के दिलों में अहिंसा के प्रति आस्था भी बढ़ी। किन्तु बाद में अहिंसा को केन्द्र-स्थान नहीं दिया गया, उसे पार्श्व-स्थान मिला, एक नीति के रूप में स्थान मिला । यही कारण है, अहिंसा का तेजस्वी रूप सामने
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