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अहिंसा : व्यक्ति और समाज मैं जब जैन इतिहास के पन्ने पलटता हूं तब मेरे सामने ऐसे अनेक जैन राजा और मंत्रियों के नाम आते हैं, जिन्होंने अपने राज्य का संचालन बड़ी कुशलता से किया। अनेक जैन-सेनापतियों का परिचय पाता हूं, जिन्होंने अपने सेनापतित्वकाल में अनेक युद्ध बड़ी वीरता से लड़े और विजयी होकर लौटे। यदि जैन-धर्म या अहिंसा उन्हें कायर बना देती तो यह सब कैसे होता ? प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समय भरत-बाहुबली के बीच महान संग्राम हुआ था । अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के समय राजा कौणिक और चेटक के बीच जब कि वे दोनों ही भगवान महावीर के शिष्य थे, इतिहासप्रसिद्ध भयंकर युद्ध हुआ। इन सब उदाहरणों से स्पष्ट होता है, परिग्रह और सत्ता की स्थिति में युद्ध की स्थिति अनिवार्य रही है और अहिंसा में विश्वास रखने वाले भी उस स्थिति में सदा कर्तव्य-परायणता और वीरता के साथ भाग लेते रहे हैं, क्योंकि वे परिग्रह, हिंसा और अहिंसा--इन सबकी आवश्यकताओं और सीमाओं से अपरिचित नहीं थे।
परिग्रह, लिप्सा, भय और हिंसा-इन में कार्य-कारण-भाव होता है। एक को स्वीकारते हुए हम दूसरे को नकार नहीं सकते । अपरिग्रह के साथ अहिंसा की बात अवश्य निभ सकती है । अपरिग्रह, अभय और अहिंसा-यह एक पूरा वृत्त है। किन्तु परिग्रह का दायित्व स्वीकार करने वाला उसकी सुरक्षा के समय अहिंसा की बात करे, इसे मैं निरी कायरता मानता हूं।
सामाजिक व्यक्ति के लिए युद्ध एक अनिवार्य कोटि की हिंसा हैएक ऐसी हिंसा जिसका परिहार समाज में जीने वाला आदमी नहीं कर सकता । हां, इतना अवश्य है, मैं युद्ध में होने वाली हिंसा को अहिंसा नहीं मानता। कुछ धर्म-ग्रंथों ने युद्ध में लड़ने को धर्म और स्वर्ग तथा अपवर्गप्राप्ति का साधन बताया है। मैं इससे सहमत नहीं । यह तो स्वयं अहिंसा का खण्डन है।
भारत सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहा। इस गुलामी का कारण अहिंसा को मानना, मेरे विचार से एक अज्ञानपूर्ण बात होगी। इतिहास स्वयं इस बात का साक्षी है कि अहिंसा के उत्कर्षकाल में देश ने सदा सब प्रकार से उन्नति की है । भगवान महावीर और गौतम बुद्ध के अहिंसा और करुणा के उपदेशों का प्रभाव उनके बाद करीब पन्द्रह सौ वर्षों तक चलता है । गुप्त-साम्राज्य, जो कि भारत के इतिहास में स्वर्णिम युग कहा जाता है, वह भी इसी अवधि में पनपा था। पन्द्रह सौ वर्षों का इतिहास आज भी अपनी गौरव भरी विजयगाथाएं ग रहा है।
सके बाद अहिंसा का प्रभाव घटने लगा। अहिंसा का उपदेश दे वाले धर्म सम्प्रदाय स्वयं आपसी झगड़ों में उलझ गए। कलह, ईर्ष्या और विद्वेष ने राजनीति, समाज और धर्म-किसी को भी अछूता नहीं छोड़ा । धर्म के
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