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________________ अहिंसा और वीरत्व अहिंसा-निष्ठ समाज या व्यक्ति दया और करुणा-प्रधान अवश्य होता है किन्तु इस कारण उसमें वीरत्व और पौरुष नहीं हो सकता, इसे मैं मिथ्या आरोप या भ्रम समझता हूं । आरोप उनका है, जिनकी अहिंसा में निष्ठा नहीं है और भ्रम उनका है, जिन्होंने अहिंसा को समझा नहीं । यह तभी संभव है, जब दया और करुणा के साथ वीरत्व और पौरुष का विरोध हो । मैं इनमें विरोध तो देखता ही नहीं, प्रत्युत एक-दूसरे में एक-दूसरे का साहचर्य आवश्यक मानता हूं । आज एक-दूसरे में एक-दूसरे का साहचर्य नहीं है । इसीलिए जिस प्रकार दया और करुणा लांछित हैं, वैसे ही वीरत्व और पौरुष भी लांछित भारतीय दार्शनिकों ने अहिंसा पर बहुत सूक्ष्मता से विचार किया है। अनेक धर्म-ग्रन्थों ने भारतीय जीवन-पद्धति में अहिंसा का विधान भी दिया है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने प्रतिकार का निषेध किया हो। जहां समाज में संपत्ति और अपरिग्रह है, उस संपत्ति और परिग्रह की सुरक्षा का निषेध कोई भी धर्म-ग्रन्थ नहीं कर सकता। भारत-पाक-संघर्ष के समय में दिल्ली में था। वहां एक बार सहसा दिनकरजी मिले । उन्होंने छूटते ही कहा-'आप लोगों के सामने तो अभी विकट समस्या होगी, भारत और पाक के बीच युद्ध जो चल रहा है। आप न तो युद्ध को अच्छा मानते हैं, न उसका समर्थन करते हैं और न युद्ध में भाग लेने के लिए अपने अनुयायियों को आदेश ही देते हैं । आदेश तो दूर, भाग लेने का निषेध भी करते हैं । अब इस नाजुक समय में आपके सिद्धान्तों की रक्षा कैसे संभव है?' यह एक भ्रमपूर्ण प्रश्न है जो एक-दो व्यक्तियों तक सीमित नहीं,व्यापक रूप लिए है। हम युद्ध को न अच्छा मानते हैं और न समर्थन ही करते हैंयहां तक इस कथन में अवश्य सचाई है। किन्तु युद्ध में भाग लेने का निषेध करते हैं, यह कहना सही नहीं । क्योंकि जब तक समाज के साथ परिग्रह जुड़ा हुआ है, मैं हिंसा और युद्ध की अनिवार्यता देखता हूं । परिग्रह के साथ लिप्सा का गठबन्धन होता है। लिप्सा भय को जन्म देती है, और भय निश्चित रूप से हिंसा और संघर्ष का आमंत्रण है । समाज में जीने वाला और समाज की सुरक्षा का दायित्व ओढ़ने वाला आदमी युद्ध के अनिवार्य कारणों को देखता हुआ भी उसे नकारने का प्रयत्न करे, इसे मैं खण्डित मान्यता मानता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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