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अहिंसा : व्यक्ति और समाज स्वेच्छा से क्यों नहीं जाते ? बात जरा विचित्र है कि मुझे ईसाइयों के सामने ऐसी बात करनी पड़ती है । हिन्दुओं के सामने भी यही कहना पड़ता है । कितने ही ईसाई मुझसे कहते हैं कि ईसा की निर्वैरता का उपदेश केवल १२ शिष्यों के लिए ही था । हिन्दुस्तान में अहिंसा के विरोधी कहते हैं कि उससे नामर्दी फैलेगी । मैं आपसे कहने के लिए आया हूं कि यदि भारतवर्ष अहिंसक न बनेगा तो उसका सर्वनाश समझिए; दूसरी कोमों का भी नाश समझिए । भारत एक भारी भूखण्ड है; वह यदि हिंसक हो जाए तो और खंडों की तरह वह भी दुर्बलों पर जबरदस्ती करेगा और यदि ऐसा हुआ तो जरा उसकी कल्पना कीजिए । मेरी राष्ट्रीयता
मेरी राष्ट्रीयता में प्राणिमात्र का समावेश होता है; संसार की समस्त जातियों का समावेश होता है । यदि भारत को अहिंसा का कायल कर सकूं तो भारत सारे जगत् को कुछ चमत्कार दिखा सकेगा । मैं नहीं समझता कि भारत दूसरे राष्ट्रों के चिताभस्म पर खड़ा होगा। मैं चाहता हूं कि वह आत्मबल प्राप्त करे और दूसरे राष्ट्रों को भी बलवान् बनाये । दूसरे राष्ट्र बल का मार्ग नहीं दिखा रहे हैं, इसलिए मुझे इस अचल सिद्धांत का आश्रय लेना पड़ा है कि मैं कभी उस विधान को स्वीकार नहीं करूंगा जिसका आधार पशु-बल हो ।
राष्ट्रपति विल्सन ने चौदह सिद्धांतों की रचना की और उन पर कलश चढाते हुए कहा - 'यदि हम इसमें सफल न हुए तो हथियार तो है ही ।' मैं इसे उलट कर कहना चाहता हूं कि हमारे सब पार्थिव शस्त्र बेकार हुए हैं, इसलिए किसी नये शस्त्र को खोजें । चलो, अब प्रेम का शस्त्र, सत्य का शस्त्र लें । यह शस्त्र जब हमें मिल जायेगा तब हमें किसी दूसरे की जरूरत न रहेगी ।
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